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पंडितजी का हृदय अत्यन्त व्यथित हो रहा था। वे साथ-साथ आश्चर्यचकित भी थे कि जिस नारी के वदन को देखकर यह कल्पना भी नहीं की जा सकती, ऐसी व्रतधारिणी पत्नी क्या ऐसी कुलटा भी हो सकती है?
अर्धघटिका में वटवृक्ष एक छोटे से उपवन के बीच स्थित एक मकान के पास उतरा।
उमादे तत्काल वृक्ष के नीचे उतर गई और आस-पास दृष्टिपात करती हुई मकान की ओर बढ़ी। पंडितजी इतने हताश हो चुके थे कि मानो उनमें वृक्ष-कोटर से निकलने की भी शक्ति चुक गई हो। इतना होने पर भी ज्यों-त्यों शक्ति को बटोर कर वे बाहर निकले और मकान की ओर देखा। उमादे मकान के द्वार पर दस्तक दे रही थी।
___ कुछ ही क्षणों के पश्चात् द्वार खुला। एक पुरुषाकृति दिखाई दी और उमादे उसके साथ अन्दर गई। मकान का द्वार बंद हो गया।
पंडितजी भी आश्चर्यविमूढ़ होकर मकान के पास गए। किन्तु अन्दर कैसे जाएं? कुछ सोचकर वे एक दीवार फांदकर अन्दर उतरे और पदचाप न हो, इस दृष्टि से धीरे-धीरे आगे बढ़े।
इस भवन में कोई दूसरा मानव रहता हो, ऐसा नहीं लगता था। पंडितजी धीरे-धीरे एक ऊंचे स्थान पर चढ़े। उन्होंने देखा, एक खंड में कुछ प्रकाश है। किन्तु उस खंड का द्वार बंद था। पंडितजी ने देखा कि कोई वातायन खुला है या नहीं? एक वातायन खुला था, किन्तु वह इतना ऊंचा था कि वहां पहुंचकर अन्दर देख पाना शक्य नहीं था।
__पंडितजी असमंजस में पड़ गए। अन्दर पत्नी क्या कर रही है, यह जानने की उत्कट इच्छा को वे दबा नहीं सके, और कोई मार्ग भी नहीं दिख रहा था।
अचानक उनकी दृष्टि द्वार के एक छिद्र पर पड़ी। तत्काल वे द्वार के पास गए और उस छिद्र से भीतर का दृश्य देखने लगे।
उस खंड में प्रकाश फैल रहा था। सामने पलंग पड़ा था और पंडितजी वहां का दृश्य देखकर स्तब्ध रह गये। उनके हृदय की धड़कन बढ़ गई। उमादे निरावरण हो चुकी थी। काले रंग का वह पुरुष भी निरावरण था। दोनों एक पलंग पर बैठ गए। एक थाल में कुछ खाद्य सामग्री पड़ी थी। वे एक-दूसरे के मुंह में कवल दे रहे थे। एक त्रिपदी पर मैरेय का पात्र पड़ा था। मिट्टी के दो प्याले भी रखे थे। खाते-खाते वह पुरुष बोला, 'उमा! अब इस प्रकार कब तक चलेगा?'
'प्राणेश! अब अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। इस चतुर्दशी की काल-रात्रि में मेरे पति और सभी विद्यार्थी सदा के लिए नष्ट हो जाएंगे। फिर मैं यहीं आ जाऊंगी।'
२८६ वीर विक्रमादित्य