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'तुम्हारी बात की मैं परीक्षा करूंगा। मैं किसी को इस विषय में एक शब्द भी नहीं कहूंगा।'
विक्रम ने कहा, 'तो आज रात्रि से पूर्व आप यह बात प्रचारित करें कि आप एक रात भर के लिए किसी गांव जा रहे हैं। आप मुझे साथ लेकर जाएं। रात्रि के दूसरे प्रहर में हम भवन में लौट आएंगे और कहीं छिप जाएंगे।'
'ऐसा क्यों ? यदि घर पर ही रहें......'
बीच में ही विक्रम बोला, 'आपकी पत्नी आपको सर्वरस दंड से निद्राधीन कर देती है.... फिर आप जाग नहीं पाते।'
'ठीक है ।' कहकर पंडितजी खड़े हुए।
सभी शिष्य स्नान आदि से निवृत्त हो चुके थे। पंडितजी और विक्रम ने भी स्नान किया। सभी भवन की ओर प्रस्थित हुए।
घर पहुंचकर ज्यों ही पंडितजी अपने कक्ष की ओर गए, तत्काल उमादे सामने आकर विनय-भरे स्वर में बोली- 'प्राणप्रिय ! आज आपको इतना विलम्ब कैसे हुआ? आपका चरणामृत लिये बिना मैं दन्तधावन भी नहीं कर सकती, क्या आप यह भूल गए ?'
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पंडितजी ने मधुर स्वरों में कहा, 'प्रिये! सती नारी का आदर्श मैं कैसे भूल सकता हूं ? किन्तु नये शिष्य वल्लभ के साथ शास्त्र चर्चा करते हुए कुछ विलम्ब हो गया। वल्लभ बहुत तेजस्वी है। मुझे प्रतीत होता है कि भविष्य में यह सामवेद का महान् गायक बनेगा ।'
उमादे ने प्रसन्न दृष्टि से स्वामी की ओर देखा और चरण धोकर चरणामृत का पान किया, फिर वह दंतधावन करने अन्यत्र चली गई ।
पंडितजी ने सोचा, ऐसी सुन्दर और व्रतधारिणी पत्नी में कलंक हो ही नहीं सकता। जरूर ही वल्लभ ने कोई दुःस्वप्न देखा होगा। फिर भी पंडितजी ने योजना के अनुसार परीक्षा करने का निश्चय किया ।
मध्याह्न के समय पंडित सोमशर्मा और पांच-सात छात्र वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस समय पति को वंदना करने उमादे आयी । पंडितजी ने कहा, 'प्रिये ! एक रात भर के लिए मैं तुम्हारे पर सारी जिम्मेदारी देता हूं।'
'आज्ञा करें ..... ।'
'कुछ समय पश्चात् मुझे यहां से तीन कोस की दूरी पर चंद्रपल्ली गांव में जाना है....मुझे वहां एक रात रुकना है। प्रात:काल स्नान आदि से निवृत्त होकर लौट आऊंगा।'
२८४ वीर विक्रमादित्य