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________________ 'ऐसा प्रश्न क्यों करते हो? क्या मेरे शास्त्र-ज्ञान के प्रति तुम्हें कोई सन्देह हुआ है?' 'नहीं, ऐसा नहीं है....मैं मात्र जानना चाहता हूं।' सोमशर्मा ने प्रसन्न स्वरों में कहा, 'वत्स चारों वेद मेरी जिह्वाग्र पर स्थित हैं। काव्य, नाट्य, राजनीति, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, आरोग्य-शास्त्र, व्याकरण आदि सभी शास्त्रों का मैंने अभ्यास किया है।' 'तब तो बहुत उत्तम है.....आपकी आयुष्य-मर्यादा कितनी है, कृपा कर यह बताएं।' "इसके विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।' 'यदि आप आज्ञा करें तो मैं आपकी आयुष्य-मर्यादा पर प्रकाश डाल सकता हूं।' वीर विक्रम ने गम्भीर स्वरों में कहा। 'आश्चर्य! बोलो, देखें तो....' 'गुरुदेव! आज कृष्णपक्ष की नवमी है। आज से छठे दिन चतुर्दशी है। उस चतुर्दशी की रात को आप और आपके सभी शिष्य मौत के मुंह में चले जाएंगे।' 'अशक्य....1 'पंडितजी ! मैं सत्य कह रहा हूं। यदि आप विश्वासपूर्वक मेरी बात सुनना चाहें, और मन में ही उसे रखें तो मैं विस्तार से आपको बताऊं।' पंडितजी बैठ गए और बोले, 'बोलो, मैं निश्चिंतता से सुनूंगा।' वीर विक्रम पंडितजी के सामने बैठकर बोला, 'महात्मन् ! आपकी पत्नी सती-लक्ष्मी हैं....किन्तु वे केवल दंभ करती हैं।' कहकर विक्रम ने गत रात वाली बात संक्षेप में सुना दी। पंडितजी अवाक रह गए। स्वयं की पत्नी इतनी दुष्ट है, ऐसा वे स्वप्न में भी मानने को तैयार नहीं थे। वल्लभ विक्रम की बात भी बहुत वजनदार थी। उसे सुनकर वे विचारमग्न हो गए। __वीर विक्रम ने कहा, 'महात्मन्! आपकी पत्नी ने आपकी और आपके सभी शिष्यों की बलि देने का निश्चय किया है। यदि ऐसा नहीं होता तो मैं आपको यह बात कहता ही नहीं। मैं समझता हूं कि आप अपनी पत्नी के बाह्य आचरण से मुग्ध बने हुए हैं और आप उनके विषय में कोई संशय भी नहीं कर सकते। अभी चतुर्दशी के बीच अनेक दिन शेष हैं। मेरा अनुमान है कि आपकी पत्नी आज अपने यार से मिलने अवश्य जाएगी। इसलिए आप मेरी बात की परीक्षा कर लें, फिर हमें क्या करना है, इस विषय में सोचेंगे। मेरा प्रयोजन केवल आपको तथा आपके शिष्यों को बचाना है।' वीर विक्रमादित्य २८३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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