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________________ उमादे बोली- 'देव! आगामी चतुर्दशी के दिन मैं ज्यों-त्यों मायाजाल बिछाकर आपके कथनानुसार करूंगी। आप उस रात मेरे यहां अवश्य पधारना और बलि स्वीकार कर मुझे मुक्त कर देना।' यह बातचीत सुनकर विक्रम स्तब्ध रह गया। ओह ! यह दुष्ट नारी केवल अपने शारीरिक सुखोपयोग के लिए चौंसठ व्यक्तियों का बलिदान करने को तैयार है और सोपारक नगरी के मनुष्य इस नारी को श्रेष्ठ सती मानकर इसकी पूजा करते हैं। उमादे और क्षेत्रपाल की बात पूरी होते ही विक्रम तत्काल लौट गया और वटवृक्ष के कोटर में छिपकर बैठ गया। कुछ समय पश्चात् उमादे भी आ गई। उसने तीन बार दंड भूमि पर पटका और वृक्ष पर चढ़ गई। उसी क्षण वृक्ष आकाश-मार्ग से उड़ा और जब वह पंडितजी के आंगन में पहुंचा, तब रात्रि के तीसरे प्रहर की तीसरी घटिका चल रही थी। उमादे वृक्ष से उतरकर सीधी अपने स्वामी की शय्या के पास गई। सर्वरस दंड को तीन बार घुमाया और फिर अपने खण्ड में चली गई। विक्रम भी चौंसठ विद्यार्थियों के बलिदान की बात सोचता-सोचता शय्या पर करवटें बदलने लगा। उसके मन में एक ही प्रश्न घूमता था-इस नारी के मायाजाल से पैंसठ आदमियों को कैसे निकाला जाए? ५४. चरित्रहीन उमादे रात्रि के चौथे प्रहर की आवृत्ति पूरी होने पर पंडित सोमशर्मा अपने सभी शिष्यों के साथ स्नान करने नदी पर गए। वीर विक्रम भी उनके साथ ही था। वह पंडितजी से एकान्त में बात करना चाहता था। सभी विद्यार्थी जब नदी में स्नान करने उतरे, तब वीर विक्रम ने पंडितजी का हाथ पकड़कर कहा, 'गुरुदेव! मुझे आपसे एकान्त में बात करनी है।' 'अवश्य।' कहकर सोमशर्मा नदी के किनारे पर खड़े एक वृक्ष की ओर गए। दोनों वृक्ष के नीचे पहुंचे। पंडितजी बोले, 'आयुष्मान् ! तुम्हें किस विषय की बात करनी है?' 'बात करने से पूर्व एक प्रश्न पूछू ?' 'अवश्य....।' 'आपने कितने शास्त्रों का अभ्यास किया है ?' २८२ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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