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सामने देवी माता की एक भव्य प्रतिमा थी । प्रतिमा मणिरत्न की होने के कारण उससे सूर्य जैसा प्रकाश बिखर रहा था । विक्रम ने ऐसी प्रतिमा पहले कभी नहीं देखी थी। यह देवी कौन होगी ? यह मंदिर कहां है ? यहां क्या होने वाला है ? माता की मूर्ति के समक्ष हाथ जोड़कर कहा, 'हे निर्जरा देवी ! मैं आपके चरणकमलों में नमन करती हूं।' ऐसा कहकर उसने एक स्तुति का गान प्रारम्भ किया ।
विक्रम आश्चर्यचकित रह गया। मंदिर के विशाल सभामंडप में चौंसठ योगिनियां और बावन वीर एक-एक कर आए और अपने-अपने आसन पर बैठ गये ।
विक्रम का आश्चर्य बढ़ रहा था ।
उमादे ने सबको नमस्कार किया। उसी समय लाल नेत्रों वाला क्षेत्रपाल रोष भरे स्वरों में बोला, ‘उमादे! तेरी साधना से प्रसन्न होकर जब मैंने तुझे सर्वरस दंड दिया था, उस दिन तूने जो शर्त की थी, वह याद है? उस बात को बहुत समय बीत गया । सर्वरस दंड के प्रभाव से तू आधी रात में अपने प्रेमी के पास चली जाती है, किन्तु हमारे लिए बलि की व्यवस्था करना भूल जाती है। इस प्रकार विलम्ब करना तेरे लिए उचित नहीं है।'
क्षेत्रपाल की ओर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक नमाकर, विनम्र स्वरों में उमादे बोली- 'कृपालु! मुझे वह शर्त याद है। मैं एक क्षण के लिए भी नहीं भूल पायी हूं, किन्तु उत्तम लक्षण साले चौंसठ पुरुषों को प्राप्त करना बहुत ही कठिन कार्य है। आपकी कृपा से अब चौंसठ पुरुष एकत्रित हो गए हैं। अब मैं उन चौंसठ पुरुषों को चौंसठ योगिनियों के लिए बलि रूप में दे सकूंगी और अपने पति को आपके लिए अर्पित करूंगी।'
'तो फिर विलम्ब किसलिए ?'
'इसीलिए तो आज अपने प्रियतम के पास न जाकर आप सबके दर्शन करने आयी हूं। आप कहें उस दिन और उस व्यवस्था से मैं बलि की तैयारी करूं ।' 'तो सुन ! छह दिन बाद कृष्णा चतुर्दशी है। उस दिन रात्रि के प्रथम प्रहर के पश्चात् अपने भवन में चौंसठ मंगल करना और पैंसठवां मंगल अपने पति का करना। फिर इन मंगलों में चौंसठ विद्यार्थियों को और अपने पति को स्नान - शुद्ध कर, कणेर की फूल-मालाएं पहनाकर बिठाना । प्रत्येक के भाल पर तिलक करना । प्रत्येक के रक्षा-बंधन बांधना और सबके सामने भोजन का थाल रखना। उस समय हम सब अदृश्य रूप से वहां आ पहुंचेंगे और सबका भक्ष्य ले लेंगे।'
वीर विक्रमादित्य २८१