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उमादे भी जागृत होकर एक हाथ में जल का पात्र और दूसरे हाथ में परात लेकर अपने स्वामी पंडितजी के पास आयी। परात में स्वामी के चरण रख पानी से धोए और नमन कर चरणामृत पी गई।
__पंडितजी ने अपनी सती पत्नी के मस्तक पर हाथ रखकर प्रसन्नता व्यक्त की। विक्रम ने सोचा, कामिनी कितनी दंभी और कुटिल होती है। मध्यरात्रि में श्रृंगार करके कहीं जाती है और प्रात:काल स्वामी का चरणामृत पीती है! वाह रे दुनिया ! वाह रे नारी!
दूसरी रात।
उमादे ने स्वामी की चरणरज मस्तक पर चढ़ाई। भोजन-कार्य से निवृत्त होने के पश्चात् उमादे ने स्वामी की पगचंपी प्रारम्भ की।
वीर विक्रम गुरु को नमस्कार कर अपनी शय्या पर आकर सोने की तैयारी करने लगा। और सभी विद्यार्थी सो गए थे। विक्रम ने अपने मुंह में अदृश्यकरण गुटिका डाली और बिछौने पर कोई सो रहा है, ऐसा दिखावा कर वह बाहर आ गया।
दो घटिका के बाद उमादे उत्तम वस्त्रालंकार धारण कर बारह आयी। विक्रम सावधानीपूर्वक उस वटवृक्ष के कोटर में जाकर बैठ गया।
उमादे वृक्ष के पास आयी। तीन बार अपना दंड पृथ्वी पर पटका और वह वृक्ष पर चढ़कर आकाश-मार्ग से उड़ने लगी। ___ और मात्र एक ही घटिका में अनेक विशाल सरिताएं और सागर को पार कर वृक्ष आगे बढ़ गया।
विक्रम अवाक् बनकर देखता रह गया। बिलकुल शांत और कायर जैसी दीखने वाली नारी का यह कैसा साहस है? इस रात्रि के उड़ान में भी इसे भय नहीं लगता?
और वह वटवृक्ष एक पहाड़ी पर उतरा। उमादे नीचे उतरी। विक्रम भी कोटर से बाहर निकला और उमादे के पीछे-पीछे चल पड़ा। अदृश्यकरण गुटिका के प्रभाव से कोई भी देव-दानव या मानव-उसे नहीं देख सकता था।
चलते-चलते विक्रम का विस्मय बढ़ता जा रहा था। यह प्रदेश अत्यन्त अपरिचित और भव्य था। यहां का पवन भी अतिप्रेरक और मस्तथा।।
कुछ ही क्षण चलने के पश्चात् एक विशाल मंदिर दिखाई दिया। मंदिर में सूर्य जैसा प्रकाश था। उमादे मंदिर के सोपान चढ़ने लगी।
विक्रम भी उसके पीछे ही चल रहा था।
मंदिर के द्वार खुले थे। उमादे अन्दर गई। विक्रम एक ओर गुप्त रूप से खड़ा रह गया।
२८० वीर विक्रमादित्य