SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रात्रि के दूसरे प्रहर की तीन घटिकाएं बीती होंगी। पाठशाला में नीरव शांति। सभी गहरी नींद में सो रहे थे। केवल विक्रम नींद का बहाना कर जाग रहा था। अचानक उसके कानों से पदचाप का शब्द टकराया। उसने द्वार की ओर देखा। उसी समय उमादे खण्ड में आयी। वहां एरंड तेल का एक छोटा दीया जल रहा था। उसके मृदु-मंद प्रकाश में भी विक्रम ने देखा कि उमादे के शरीर पर उत्तम वस्त्रालंकार शोभित हो रहे हैं। उसके हाथ में एक दंड भी है। उस समय वह कोई कामरंभा जैसी सुन्दर लग रही थी। __उमादे ने सबसे पहले विद्यार्थियों की ओर दृष्टि दौड़ाई। उसने अपना दंड ऊपर उठाकर पंडितजी पर तीन बार घुमाया। फिर वह बाहर निकल गई। विक्रम भी धीरे से उठा। पदचापन हो, इसका ध्यान रखता हुआ वह खंड से बाहर आया। विक्रम ने सोचा-यह सती-साध्वी दिखने वाली नारी इस समय कहां जाती होगी? इसने इतने सुन्दर वस्त्र और अलंकार क्यों धारण किए हैं? क्या यह अपने प्रियतम से मिलने जा रही है? विक्रम के इन प्रश्नों का उत्तर कौन दे? देखते-देखते उमादे एक विशाल वटवृक्ष के पास आकर खड़ी हो गई। उसने अपने दंड को तीन बार भूमि पर पटका और फिर तत्काल वृक्ष पर चढ़ गई। उसी क्षण वह विशाल वृक्ष भूमि से उठा और आकाश-मार्ग में उड़ता हुआ अदृश्य हो गया। इस दृश्य को देखकर विक्रम के मन में भारी उथल-पुथल होने लगी। अपनी शय्या पर न जाकर वह वहीं छिपकर बैठ गया। मन में जब आश्चर्य जागता है, तब नींद काफूर हो जाती है। प्रतीक्षा करतेकरते दूसरा प्रहर पूरा हो गया। रात्रि का तीसरा प्रहर भी आधा बीत गया। तभी विक्रम ने देखा कि आकाश-मार्ग से वटवृक्ष नीचे उतर रहा है। यह देखकर वह तत्काल अपनी शय्या पर चला गया। उमादे वृक्ष से नीचे उतरी। वह अपने पति के खंड में आयी। पहले उसने ग्यारह विद्यार्थियों की ओर दृष्टि डाली। फिर अपने स्वामी पर दंड को तीन बार घुमाया और वह अपने खंड में चली गई। उमादे के इस स्वरूप को देखकर विक्रम के मन में अनेक प्रश्न जागे। उसने मन-ही-मन निश्चय किया कि वह कल उसके साथ जाकर उमादे के चरित्र की परीक्षा करेगा। चौथा प्रहर प्रारम्भ हुआ। सभी विद्यार्थी जाग गये। विक्रम भी जाग गया। विद्यार्थियों का मधुर कलरव प्रारम्भ हुआ। सर्वत्र संस्कृत श्लोकों की आवृत्तियां होने लगीं। वीर विक्रमादित्य २७६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy