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नगरी में प्रवेश करते ही उसने देखा कि नगरी बहुत सुन्दर है। वहां की प्रजा भी स्वस्थ है। वीर विक्रम एक पांथशाला में पहुंचा। उस समय उसका ब्राह्मण वेश था, इसलिए पांथशाला के संचालक ने उसका सम्मान - सत्कार किया ।
पांथशाला में भोजन-व्यवस्था भी उत्तम थी। विक्रम ने भोजन की सूचना देकर थैला साथ लिया और नगरी को देखने प्रस्थान किया। नगरी के बाजार स्वच्छ और सुन्दर थे । वहां के मंदिर आकर्षक थे। वीर विक्रम ने पांच स्वर्ण-मुद्राओं को स्थानीय मुद्रा में परिवर्तित कराया और कुछ सामान लेकर पांथशाला में आ गया।
भोजन से निवृत्त होकर वीर विक्रम निश्चिन्तता से सो गया। थकान के कारण उसे गहरी नींद आ गई और जब वह उठा तब अपराह्न हो चुका था।
उसने पांथशाला के संचालक से जाकर पूछा- 'क्या इस नगरी में सोमशर्मा नाम का कोई ब्राह्मण रहता है ?'
'हां, महाराज ! इस नगरी में सोमशर्मा नाम के चार-पांच ब्राह्मण हैं.... आप किस सोमशर्मा को पूछ रहे हैं ?'
विक्रम ने तत्काल कहा - 'जिनके उमादे नाम की धर्मपत्नी है.....'
'ओह! वे तो एक महापंडित हैं। उनके घर में बड़ी पाठशाला चलती है और अनेक विद्यार्थी उनके घर पर रहकर ही विद्याध्ययन करते हैं। क्या वे आपके कोई सगे-संबंधी हैं ?'
'सगे-संबंधी तो नहीं.... किन्तु मुझे वेदों की कुछ आवश्यक जानकारी करनी है, इसलिए मैं उनसे मिलना चाहता हूं।'
'अरे, उनका घर तो यहां से बहुत निकट है..... आप इस मार्ग से चले जाएं, • आगे तीन गलियां आएंगी। दायीं गली में जाकर आप पूछें कि पंडितजी की पाठशाला कहां है, कोई भी बता देगा ।' संचालक ने कहा ।
विक्रम अपना थैला पांथशाला में रखकर सोमशर्मा से मिलने चल पड़ा। कुछ ही क्षणों में वह एक भव्य मकान के पास पहुंच गया। उस भवन के आंगन में चार-पांच विशाल वृक्ष थे । विक्रम अन्दर गया। पंडित सोमशर्मा अपने निवासगृह में बाहर के बरामदे में बैठे थे। उनके सामने पांच विद्यार्थी जमीन पर बैठे थे। वीर विक्रम ने पंडितजी को नमस्कार किया। पंडित ने इस नवीन युवक को देखा और आशीर्वाद देते हुए कहा- 'आओ भाई ! कहां रहते हो ?'
'मैं अवंती नगरी में रहता हूं' - कहकर विक्रम फर्श पर बैठ गया ।
'इधर यात्रा के लिए निकले हो ?'
'जी नहीं, केवल आपके पास ही आया हूं। मेरे गुरु पंडित भट्टमात्र ने मुझे यहां भेजा है । '
२७६ वीर विक्रमादित्य