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________________ 'हमारे दोनों के भाग्य इतने निर्बल कहां हैं?' 'स्वामिन् ! यहां से अवंती कितनी दूर है ?' 'बहुत दूर है। लगभग एक महीना और लग जाएगा....किन्तु तुम्हारी अधीरता का आज रात को ही अन्त आ जाएगा।' 'मैं समझी नहीं।' 'हम आज रात को ही अवंती पहुंच जाएंगे।' 'कैसे?' 'कुछेक बातें जानने के बदले मानना अधिक श्रेष्ठ होता है।' और एक मध्यम गांव के परिसर में पहुंचते-पहुंचते संध्या का समय हो गया। दोनों ने रात्रिवास वहीं करने का निर्णय किया। ठीक मध्यरात्रि के समय विक्रम ने अपने मित्र अग्निवैताल को याद किया। उस समय लक्ष्मीवती गहरी नींद में सो रही थी। वैताल उपस्थित हुआ। विक्रम ने संक्षेप में उसे सारी बात बताई। प्रात:काल से पूर्व ही वीर विक्रम, लक्ष्मी, ऊंट और सारा सामान अवंती के परिसर में स्थित एक उद्यान में पहुंच गया। वैताल महाराजा विक्रमादित्य को धन्यवाद देकर अदृश्य हो गया। प्रात:काल हुआ। चिड़ियां चहचहाने लगीं। राजकन्या लक्ष्मीवती बिस्तर से उठ बैठी। विक्रम जागते ही बैठे थे। लक्ष्मीवती ने पूछा-'आप कब जाग गए?' 'मैं पहले ही उठ गया था। अरे, देखो तो सही, हम अवंती की सीमा में पहुंच गए हैं।' लक्ष्मीवती ने खड़े होकर नगरी की ओर देखा....अवंती के गगनचुम्बी महल दृष्टिगोचर हो रहे थे। सूर्योदय से पूर्व ही दोनों ऊंट पर बैठकर राजभवन में पहुंच गए। विशाल राजभवन....लक्ष्मी अपने भाग्य की सराहना करने लगी। विक्रम ने पूर्ण उल्लासपूर्ण वातावरण में लक्ष्मी के साथ विधिवत् विवाह कर उसे अर्धांगिनी बनाया। नगरी में आनन्द-मंगल बरसने लगा। आठ दिन पश्चात् वीर विक्रम ने नागदमनी को राजभवन में बुलाया और उसे रत्नपेटिका सौंपते हुए कहा-'यह रही रत्नपेटिका। अब पंचदंड छत्र का निर्माण करो।' २७४ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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