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________________ विक्रम चिल्लाया-'लक्ष्मी! लक्ष्मी!' लक्ष्मी अपने जुआरी पति को चारों ओर खोज रही थी-अपना नाम सुनकर वह चौंकी। आवाज की दिशा में उसने देखा और उसके नयन-कमल विकसित हो गए। विक्रम भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़ा, राजकन्या के पास आकर बोला-'लक्ष्मी ! यह सब क्या है ?' राजसिंह ने विक्रम को देखते ही पहचान लिया और उसके पैरों में झुकता हुआ बोला-'कृपानाथ! आप?' एक जुआरी के पैरों में नगरी के राजा को झुकते देखकर लक्ष्मी आश्चर्यचकित रह गई। राजा ने लक्ष्मी की ओर देख कहा- 'बहन! तेरे महान् पति तुझे मिल गए न?' लक्ष्मी पालकी से नीचे उतरकर विक्रम के पास आ गई थी। लोग हर्षनाद कर रहे थे, जय-जयकार कर रहे थे। और विक्रम ने राजसिंह को गले लगा लिया। राजसिंह ने एक हाथ ऊंचा उठाकर कहा- 'बोलो, मालवपति महाराज विक्रमादित्य की जय!' लोगों ने जयनाद से गगन-मंडल को गुंजा दिया। राजसिंह दोनों को साथ ले राजभवन में गया। लक्ष्मीवती ने संक्षेप में अपनी रामकहानी सुनाई। यह सुनते ही राजसिंह ने अपने प्रतिहार को आज्ञा दी कि रूपश्री को तत्काल बन्दी बनाकर कारागृह में डाल दो और वह रत्नपेटिका लेकर आओ। फिर राजसिंह ने दोनों अतिथियों को भोजन कराया। विक्रम को तत्काल वहां से प्रस्थान करना था, पर राजसिंह के आग्रह के कारण वे आठ दिन तक वहां रुके। लक्ष्मीवती को अपनी रत्नपेटिका प्राप्त हो गई और वीर विक्रम के कहने पर रूपश्री को बन्धनमुक्त कर दिया गया। लक्ष्मी के हर्ष का पार नहीं रहा। उसके मन में आनन्द का सागर हिलोरें लेने लगा कि वह एक जुआरी को नहीं, किन्तु भारत के महान् तेजस्वी और यशस्वी मालवपति को स्वामी बना सकी है। नौवें दिन उसी ऊंट पर प्रवास प्रारम्भ किया। नगरी से एकाध कोस दूर जाने पर लक्ष्मीवती ने पूछा- 'महाराज! आपने अपना मूल परिचय क्यों नहीं दिया?' 'प्रिये! मैं तुम्हारे स्वभाव और साहस की परीक्षा लेना चाहता था।' 'ओह! इस परीक्षाकाल में यदि मैं काष्ठभक्षण कर लेती तो?' वीर विक्रमादित्य २७३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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