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'पहले आप मेरे एक प्रश्न का उत्तर दें ।'
'बोल !'
'आप कौन हैं ?'
'मैं इस नगरी का राजा हूं। क्या तूने अपने पति को खोजने का कुछ प्रयत्न किया है ?'
लक्ष्मीवती ने सिर हिलाकर कहा - 'नहीं' ।
राजा ने कहा- 'तो बहन ! इतनी उतावल मत कर। पहले तू अपने स्वामी को खोजने का प्रयत्न कर। इस प्रकार उतावलपन में जीवन को होम देना उचित नहीं है।'
शोभायात्रा रुक गई।
हजारों नर-नारी एकत्रित हो गए ।
लक्ष्मी ने पालकी में बैठे-बैठे चारों ओर देखा, पर विक्रम जुआरी दिखाई नहीं दिया ।
वीर विक्रम तो नगरी से गरम भोजन, तांबूल आदि लेकर उस स्थान पर गया था जहां वह लक्ष्मीवती को बिठाकर आया था, किन्तु वहां कोई नहीं था -न लक्ष्मी थी, न ऊंट था और न सामान था। उसने आस-पास में देखा। एक किसान का बच्चा दूर खड़ा था। उसके पास जाकर विक्रम ने पूछा- 'यहां एक ऊंट और एक स्त्री बैठी थी - वे किधर गए हैं, क्या तू जानता है ?'
'जी हां, वे तो कुछ ही समय पूर्व नगरी की ओर गए हैं।' 'नगरी की ओर ?'
'हां, ऊंट को एक व्यक्ति ले जा रहा था । एक व्यक्ति और दो स्त्रियां और थीं।'
'ओह!' कहकर विक्रम ने पूरी खाद्य सामग्री उस बालक को दे दी और स्वयं नगरी की ओर भागा।
उसने सोचा, क्या राजा चन्द्रभूप का कोई परिचित मिल गया अथवा कोई दुष्ट व्यक्ति लक्ष्मी को उठाकर ले गया ?
विक्रम नगरी में पहुंचा। चारों ओर खोज करने लगा। अनेक व्यक्तियों से पूछा। वह अपनी पत्नी को ढूंढता-ढूंढता राजभवन की ओर बढ़ा। वहां एक स्थान पर भीड़ एकत्रित थी । उसके मन में कुतूहल उठा। वह उस भीड़ में से रास्ता बनाकर आगे जाना चाहता था। तभी उसकी दृष्टि पालकी पर पड़ी। पालकी के पास ही राजसिंह खड़ा था । ओह ! यह तो मेरा परिचित है। यह एक वर्ष पूर्व अवंती आया था और एक मास पर्यन्त वहां रह गया था । अरे, लक्ष्मीवती पालकी में क्यों ?
२७२ वीर विक्रमादित्य