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________________ 'नहीं, लक्ष्मी ! मैं तुझे नये वस्त्र दूंगी।' कहकर उसने एक दासी को बुलाया। दासी के आने पर रूपश्री ने दासी से कहा- 'नये वस्त्र कहां रखे हैं?' दासी बोली- 'इस पेटी में नये वस्त्र हैं।' रूपश्री ने लक्ष्मी से कहा- 'अब तो कोई आपत्ति नहीं है ?' 'नहीं....' 'तब मैं इस रत्नपेटिका को संभालकर रख दूं। तू वस्त्र पहन ले।' कहकर रूपश्री ने दासी को वहीं रुकने का संकेत किया। दिवस का दूसरा प्रहर अभी चल रहा था-एक पालकी में लक्ष्मी बैठ गई। आगे-आगे वाद्यमंडली.....पीछे-पीछे मदन के द्वारा प्रेषित व्यक्ति और अन्त में पालकी में बैठी हुई राजकन्या, जिस पर चन्दन का लेप शोभित हो रहा था। शोभायात्रा छोटी थी....पर आगे बढ़ते-बढ़ते लोग इसमें जुड़ते गए। उस काल में यदि कोई मनुष्य स्वेच्छा से जलकर मरना चाहता तो लोग उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे और फूलों से वर्धापित करते थे। यही 'काष्ठभक्षण' कहलाता था। शोभायात्रा मुख्य बाजार से होती हुई राजभवन के राजमार्ग की ओर मुड़ी। शोभायात्रा में सैकड़ों नर-नारी जुड़ गए थे। लक्ष्मीपुर का राजा राजसिंह रथ में बैठकर भोजन करने राजभवन की ओर जा रहा था। उसने यह बात सुनी कि कोई नवयौवना काष्ठभक्षण कर रही हैरूपश्री वेश्या की वह कन्या है। राजसिंह को इस बात पर बहुत आश्चर्य हुआ। उसने यह कभी नहीं सुना था कि रूपश्री के कोई कन्या है। यदि हो तो उसे काष्ठभक्षण क्यों करना पड़ा? राजसिंह ने रथ को शोभायात्रा की ओर ले जाने के लिए कहा। उस समय शोभायात्रा राजभवन से आगे बढ़ गई थी। राजसिंह वहां पहुंच गया और रथ से उतरकर सीधा पालकी के पास पहुंचा। पालकी पर बैठी उस देवकन्या जैसी कन्या को देखकर वह अवाक रह गया। उसने पूछा- 'बहन! इस छोटी अवस्था में तुझे 'काष्ठभक्षण' क्यों करना पड़ रहा है?' 'दुःख की पीड़ा के बिना कोई भी व्यक्ति अपना जीवन समाप्त नहीं करता।' 'तुझे ऐसा कौन-सा दु:ख है?' 'अपने स्वामी से मैं छूट गई हूं।' 'कहां है तेरे स्वामी?' 'मैं क्या जानूं? आज ही वे इस नगरी में आए हैं।' 'बहन! मैंने तो सुना है कि तू रूपश्री वेश्या की कन्या है।' वीर विक्रमादित्य २७१
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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