SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "जैसी आपकी इच्छा।' लक्ष्मीवती ने इतना ही कहा। उसके मन में भीमदेव के चेहरे को देखने की तमन्ना जाग गई थी। किन्तु वह आगे बैठी थी और लज्जावश पीछे नहीं देख पा रही थी। वन-प्रदेश सघन था....हिंसक प्राणियों की आवाजें भी सुनाई दे रही थीं। कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक सुरम्य स्थल आया, जहां विश्राम किया जा सकता था। विक्रम ने ऊंट को खड़ा किया, नीचे बिठाया। विक्रम ऊंट से नीचे उतरे और अपने हाथ का सहारा देकर राजकन्या को नीचे उतारा। भीमकुमार के सेवक श्याम ने ऊंट पर कुछ सामान लाद रखा था....धनुषबाण....चादर आदि-आदि। विक्रमनेसमतल स्थान देखकर चादर बिछाई और फिर राजकन्या की ओर मुड़कर कहा-'कुछ विश्राम कर लो।' 'आप?' 'मुझे जागते रहने की आदत है...तुम कुछ विश्राम कर लो....रात का अंतिम प्रहर चल रहा है....सूर्योदय से पूर्व हमें रवाना हो जाना है।' . राजकन्या बोली नहीं। वह उस बिछी हुई चादर पर संकोचपूर्वक सो गई। विक्रम ऊंट के पास गए....अन्धकार तो था ही....वन भी भयंकर प्रतीत हो रहा था। स्वयं किस ओर जा रहे हैं, यह उन्हें ज्ञात नहीं था। लक्ष्मीवती भी अपने साहसिक कदम के विषय में सोचने लगी....मैंने एक छवि मात्र को देखकर अपने प्रिय माता-पिता का त्याग कर दिया....भीमकुमार के पिता शत्रु हैं...वहां मेरा कैसा स्वागत होगा? मेरे साथ क्या व्यवहार होगा? भीमकुमार के हृदय में मेरा क्या स्थान बनेगा?....ये सारे प्रश्न उस राजकन्या के मन में उभरने लगे। उसे लगा कि उसकी नौका आशा और निराशा के बीच झूल रही है। पता नहीं, मुझे आशा का किनारा प्राप्त होगा या निराशा का? उसे अभी तक यह ज्ञात नहीं हो पाया था कि कुरूप भीमकुमार के बदले वह भारत के श्रेष्ठ और महान् तेजस्वी राजा को प्राप्त कर चुकी है और उन्होंने कुरूप भीमकुमार के पंजों से उसे मुक्ति दिलाई है। उसे ऐसी कल्पना भी कैसे हो सकती है? उसने तो एक योजना बनाई थी और उसी योजना के अनुसार वह स्वयं अपने माता-पिता और घर का त्याग कर निकली है। ___यौवन के आवेश से अथवा अपरिपक्व बुद्धि के कारण ऐसे साहसपूर्ण निर्णय ले लिये जाते हैं और वे मनुष्य के लिए घातक सिद्ध हो जाते हैं। प्रात:काल हुआ। पक्षियों का कलरव सुनाई देने लगा....विक्रम ने आसपास दृष्टि दौड़ाकर देखा कि कहीं जलाशय तो नहीं है। उसे कुछ भी दिखाई नहीं वीर विक्रमादित्य २५७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy