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दिया। उसने राजकन्या की ओर देखकर कहा-'देवी! प्रात:काल हो गया है....नींद तो आ गई थी न?'
राजकुमारी तत्काल उठ गई और विक्रम की ओर देखकर बोली-'कुछ विश्राम तो मिल ही गया....'
प्रभात का स्निग्ध प्रकाश बहुत आनन्ददायी लग रहा था....राजकन्या ने विक्रम की ओर देखकर आकाश पर दृष्टि डाली।
विक्रम ने चादर आदि समेटकर ऊंट पर रख दिए।
राजकन्या को आगे बिठाया। राजकन्या ने अपनी रत्नपेटिका संभाली। विक्रम भी ऊंट पर बैठ गए। अब ऊंट एक पगडंडी के मार्ग से रवाना हुआ।
___ऊंट को भी विश्राम मिल चुका था, इसलिए उसकी गति में भी मस्ती आ गई थी।
वन-प्रदेश पूरा हुआ। सूर्योदय हो चुका था। अब ऊंट सपाट मैदान पर दौड़ा जा रहा था।
राजकन्या के मन में एक संशय जागा था कि भीमकुमार का राज्य तो उत्तर दिशा की ओर है और यह प्रवास दक्षिण दिशा की ओर हो रहा है....ऐसा क्यों? क्या पिताजी जो कहते उसी के अनुसार यह शत्रु-पुत्र मुझे कहीं विपरीत दिशा में तो नहीं ले जा रहा है? क्या यह बदले की भावना का प्रतिफल तो नहीं है? वह मन-ही-मन अकुलाहट का अनुभव कर रही थी....वह किसे कहे? अब वह सर्वथा मौनभाव से बैठी रही।
दिन का पहला प्रहर पूरा हुआ।
विक्रम ने सोचा-अब हम ताम्रलिप्ति नगरी से बहुत दूर आ गए हैं....अब कोई भय नहीं है। उन्होंने चारों ओर देखा, किन्तु कोई जलाशय या गांव दिखाई नहीं दिया....क्या यह प्रदेश इतना शुष्क है?
विक्रम दक्षिण दिशा में ही ऊंट को भगाए जा रहे थे। दो घटिका के बाद उनकी दृष्टि वनराजि से सुशोभित एक जलाशय पर पड़ी...उनका मन आनन्दित हो उठा
और जलाशय के पास पहुंचकर उन्होंने ऊंट को रोककर राजकन्या से कहा'देवी! प्रात:कर्म से निवृत्त होने के लिए यह स्थान उपयुक्त है।'
लक्ष्मीवती अपने संशय में ही खोयी हुई थी। विक्रम ने एक वृक्ष के नीचे ऊंट को बिठाया, स्वयं नीचे उतरे और राजकन्या को हाथ का सहारा देकर नीचे उतारा। वृक्ष के नीचे चार बिछा दी।
दोनों प्रात:कर्म से निवृत्त होने के लिए गए।
राजकन्या प्रात:कर्म से निवृत्त होकर आ गई। विक्रम प्रात:कर्म से निवृत्त हो, स्नान आदि कर एक घटिका बाद आए। राजकन्या विक्रम को स्पष्ट रूप से
२५८ वीर विक्रमादित्य