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________________ कुछ समय बीता। विक्रम के कानों में राजभवन के पिछले हिस्से के द्वार के खुलने की आवाज आयी। विक्रम ने उस ओर देखा....राजकन्या उस द्वार से बाहर निकली और चारों ओर दृष्टि डालती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी...विक्रम ने कुछ आगे बढ़कर हाथ ऊंचा किया....तत्काल राजकन्या उस ओर आने लगी। फिर दोनों उपवन की दीवार के पास आए। विक्रम ने सहारा देकर पहले राजकन्या को दीवार पर चढ़ाया....फिर रत्नपेटिका उसे सौंप स्वयं भी दीवार पर चढ़ गए। दोनों उपवन की दीवार के उस पार उतर गए। वीर विक्रम ने जहां अपना सामान छिपाया था, उस वृक्ष के कोटर से सारा सामान लिया और कंधे पर रख लिया। राजकन्या ने पूछा-'आपका वाहन?' 'सामने खड़ा है....अब आप निर्भय रहें।' कहकर विक्रम ने राजकन्या का हाथ पकड़ा और दोनों ऊंट की दिशा में चलने लगे। कुछ ही क्षणों के पश्चात् दोनों ऊंट पर सवार हो गए। पवनवेगी ऊंट चलने लगा। विक्रम ने देखा, ऊंट अत्यन्त तेजस्वी है। उसकी गति अत्यन्त तीव्र है। विक्रम को एक कठिनाई का अनुभव होने लगा। वे यहां के मार्गों से सर्वथा अनभिज्ञ थे और यह स्वाभाविक था कि ऊंट अपने परिचित मार्ग से ही चले। चार योजन की दूरी तय करने के पश्चात् विक्रम ने ऊंट के मार्ग को बदला और ऊबड़-खाबड़ मार्ग से चलना प्रारम्भ किया। कुछ दूरी पर एक वन-प्रदेश आया। झाड़ियों के कारण ऊंट की गति मंद हो गई, परन्तु विक्रम ने उसी मार्ग से ऊंट को आगे बढ़ाया। अंधकार के कारण वृक्ष की शाखाएं राजकन्या को छूने लगीं। उसने मृदु स्वर में कहा-'आपने यह दिशा क्यों ली? यह तो कोई वन-प्रदेश है...मेरे वस्त्र भी शाखाओं में अटकते जा रहे हैं।' 'प्रिये! चिन्ता मत करो....मैंने सुरक्षा के लिए ही यह मार्ग लिया है.... तुम कुछ नीचे झुक जाओ, शाखाएं स्पर्श नहीं करेंगी।' विक्रम बोले। रात्रि का तीसरा प्रहर पूरा होने वाला था। विक्रम को उन्निद्र रहने में कोई बाधा नहीं थी, किन्तु उन्हें यह चिन्ता सता रही थी कि कोमलांगी राजकुमारी ऊंट पर बैठी-बैठी थक जाएगी। विक्रम ने कहा- 'देवी! तुम्हारी इच्छा हो तो कुछ विश्राम करें।' __'क्या अब भय जैसा कुछ नहीं है?' __'नहीं, राजभवन में प्रात:काल से पूर्वखबर नहीं पड़ेगी। तब तक हम बहुत दूर आ गये होंगे। इच्छा हो तो दो-चार घटिका तक ऊंट को खड़ा कर विश्राम कर लें।' २५६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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