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'तुम्हारे पिताश्री पधार रहे हैं....अब तुम जाओ।'
लक्ष्मी मां को प्रणाम कर अपने कक्ष में जाने के लिए सोपान श्रेणी चढ़ने लगी।
विक्रम लक्ष्मी के रूप-यौवन को बराबर निहार रहे थे। उन्होंने सोचा, 'ऐसी अपूर्व सुन्दरी क्या एक काग के गले बंधेगी? अरे, मैं तो राजकन्या को देखने में आसक्त होकर रत्नपेटिका को देखना ही भूल गया।'
यह विचार आते ही वे पांचवीं मंजिल पर गए।
राजकुमारी अपने कक्ष में सखियों से घिरी बैठी थी। विक्रम उस कक्ष में गए। उन्होंने सोचा, यह राजकुमारी का ही कक्ष होना चाहिए, क्योंकि गवाक्ष में एक नन्हा-सा दीपक टिमटिमा रहा था। कक्ष में पूरा प्रकाश था। वीर विक्रम ने चारों ओर देखा। पलंग के नीचे एक छोटी पेटिका पड़ीथी। विक्रम ने उसे उठाया....वह कुछ भारी लगी....किन्तु वह खुल नहीं सकती थी....विक्रम ने उसे वहीं रख दिया....फिर उनकी दृष्टि पलंग पर पड़े तकिए की ओर गई। उसके नीचे एक कौशेय रज्जु को छिपा रखा था। वीर विक्रम ने अनुमान किया-यह रज्जु नीचे तक जा सके, इतनी लम्बी अवश्य है। उन्होंने सोचा, क्या इस रज्जु के सहारे भीमकुमार ऊपर आएगा या राजकुमारी नीचे जाएगी?
वीर विक्रम तत्काल गवाक्ष की ओर गए....गवाक्ष मजबूत था...एक ही पत्थर का बना हुआ था....गवाक्ष में रज्जु बांधने का सहज अवकाश था।
इतना निरीक्षण कर वीर विक्रम खंड के बाहर निकले। उन्होंने देखा कि राजकन्या और उसकी सखियां कक्ष के बाहर चली गई हैं और राजकुमारी उन्हें विदाई दे रही है।
सहेलियां नीचे उतरें, उससे पूर्व ही विक्रम नीचे उतरने लगे....चौथी मंजिल का झूला खाली पड़ा था। विक्रम ने सोचा, महादेवी और चन्द्रभूप शयनकक्ष में चले गए प्रतीत होते हैं।
फिर वे शीघ्रता से नीचे उतरे और जिस मार्ग से आए थे, उसी मार्ग से बाहर निकल गए।
बाहर आने के पश्चात् वे उस स्थान पर गए, जहां उन्होंने अपने वस्त्रों को छिपाकर रखा था। वहां से वस्त्र निकालकर वे एक कुंज के पीछे गए, वस्त्र पहने और एक ओर बैठ गए।
कुछ समय पश्चात् उन्होंने सोचा, रत्नपेटिका और राजकुमारी दोनों को ही ले जाना उचित होगा, अन्यथा ऐसा निर्दोष और सुन्दर नारी-रत्न एक शत्रु
वीर विक्रमादित्य २५३