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________________ राजा के वैर का भोग बनेगा। यह हंसिनी एक काग के गले में बंधी रहकर जीवन भर दु:ख पाएगी। ऐसा अन्याय कैसे सहा जाए ? विक्रम ने पांचवीं मंजिल के गवाक्ष की ओर देखा । भीतर की दीपमालाओं से जो प्रकाश बाहर आ रहा था, वह बन्द हो गया....संभव है राजकुमारी ने सारी दीपमालिकाएं बुझा दी हों । कुछ ही क्षणों के पश्चात् उन्होंने देखा कि गवाक्ष के पास एक नारी खड़ी है और वह कुछ कर रही है...... निश्चित ही राजकुमारी गवाक्ष में कौशेय वस्त्र बांध रही होगी । किन्तु अब क्या किया जाए ? भीमकुमार आए तब उसे मूर्च्छित करूं या और कुछ ? यदि ऐसा करते समय भीमकुमार चिल्ला उठे तो सारी योजना धूल में मिल जाएगी...... ओह ! तब... ? दो क्षणों के पश्चात् विक्रम ने अपने मित्र अग्निवैताल को याद किया.... वैताल वीर विक्रम के समक्ष उपस्थित होकर बोला- 'क्या आज्ञा है, महाराज ? क्या रत्नपेटिका प्राप्त हो गई ?' 'नहीं, मित्र ! रत्नपेटिका और राजकुमारी - दोनों को ले जाने का निर्णय किया है।' यह कहकर विक्रम ने संक्षेप में भीमकुमार की बात कही । वैताल ने हंसकर कहा - 'महाराज ! दूसरों के दुःख दूर करने की प्रक्रिया में आपका अन्तःपुर रानियों से भर जाएगा.... आप आज्ञा करें तो राजकुमारी और रत्नपेटिका को उठा लाऊं ।' 'ऐसा नहीं.....तुम्हें केवल एक काम करना है .... कुछ ही क्षणों के पश्चात् भीमकुमार आएगा.....उसका एक सेवक ऊंट को बिठाकर उसकी प्रतीक्षा में खड़ा रहेगा। तुम्हें भीमकुमार और उसके सेवक को उनके देश में पहुंचा देना है.....पीछे मैं सब कुछ संभाल लूंगा ।' 'इससे तो यही अच्छा है कि मैं आपको तथा रत्नपेटिका सहित राजकन्या को अवंती पहुंचा दूं।' 'नहीं, मित्र ! मार्ग में मुझे राजकन्या के स्वभाव की परीक्षा करनी है और उसकी शक्ति का लेखा-जोखा भी लेना है।' विक्रम ने कहा । दो क्षण सोचकर वैताल बोला- 'जैसी आपकी आज्ञा....... 'तो अब हमें कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा करनी होगी.....भीमकुमार आकर जब सियार की बोली बोलने लगे तब तुम्हें अपना काम कर लेना है।' दोनों मित्र वहीं बैठ गए। २५४ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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