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कुछ दूर चलने के पश्चात् उपवन दिखाई दिया। विक्रम बोले- 'मित्र ! तब तो तुम्हारी मित्रता केवल मध्य रात्रि तक ही है। मैं तो आशा करता था कि कल पूरा दिन तुम्हारा साथ मिलेगा, परन्तु क्या हो ? तुम्हारा कार्य ही ऐसा है कि तुम्हें जाना ही पड़ेगा ।'
'सेठजी! आपका परिचय तो केवल दो घटिका का ही है, किन्तु मैं इसे जीवन-भर नहीं भूल सकूंगा.... आपका शुभ नाम ?'
'विक्रमशी सेठ !'
तुम्हारा नाम ?
'श्याम ।'
'श्याम, मैं भी तुम्हें नहीं भूलूंगा... मित्र ! मैं तुम्हें यादगार में एक वस्तु देता हूं।' कहकर विक्रम ने अपनी झोली से एक स्वर्णमुद्रा निकालकर उसके हाथ में रखी। श्याम बोला- 'सेठजी ! यह तो अधिक है।'
'अरे! क्या मैंने तुम्हें नहीं कहा था कि धन हाथ का मैल है। तुम इसे रख लो।'
श्याम अत्यन्त आनन्दित हो उठा। यदि उसके हाथ में मैरेय पात्र नहीं होता तो वह विक्रम के चरणों में झुक जाता ।
दोनों उपवन की सीमा में पहुंचे ।
विक्रम को आज अनायास ही महत्त्वपूर्ण सूचना मिल गई थी। यदि यह सूचना नहीं मिलती तो उनको खाली हाथ निराश लौटना पड़ता। पंचदंड छत्र का स्वप्न टूट जाता ।
दोनों अपने-अपने कुटीर में गए।
माली ने उत्तम भोजन की व्यवस्था कर रखी थी ।
माली ने भोजन का थाल लेकर विक्रम के सामने रखते हुए कहा- 'आप विलम्ब से पधारे ?'
'हां, कुछ विलम्ब हो गया । अरे, तुम यहां कौन-कौन रहते हो ?' माली बोला- 'मैं, मेरी पत्नी, मेरे माता- -पिता, दो बहनें और मेरे दो बच्चे !' 'क्या आठ प्राणियों की आजीविका इस उपवन की आय से चल जाती है?' 'हां, सेठजी ! अतिथि तो कभी-कभी आते हैं किन्तु हम फूलों के गजरे, मालाएं, पंखे आदि बनाकर ज्यों-त्यों आजीविका चला लेते हैं।'
विक्रम ने स्थानीय सिक्कों की वह थैली निकाली और माली के हाथ में देते हुए कहा - 'लो मेरी स्मृति में ..
माली प्रसन्न हो गया। विक्रम भोजन करने बैठे ।
२४८ वीर विक्रमादित्य