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________________ 'मैंने भी नहीं देखा है....यदि आपको देखना हो तो हम पूछते-पूछते उधर से निकल जाएंगे।' 'आए हैं तो देखते ही चलें। कल से मैं मंदिरों को देखने के लिए निकल पडूंगा....तुम भी मेरे साथ चलना।' 'सेठजी! मेरे भाग्य में देवदर्शन कहां? आज आधी रात के पश्चात् हमें यहां से लौट जाना है।' 'शत्रु की नाक काटे बिना ही?' 'नहीं, नाक काटकर ही....गांव के बाहर निकलकर पूरी बात बताऊंगा।' दास ने कहा। वह मैरेय के रंग में रंग चुका था। दो-चार नागरिकों को पूछकर दोनों राजभवन के पास पहुंचे। राजभवन अत्यन्त भव्य और साप्तभौम था। विक्रम को राजभवन का रास्ता ज्ञात करना था.....राजभवन का नक्शा मन में अंकित कर विक्रम बोले- 'मित्र! राजभवन अति मनोहर है। चलो, सांझ होने वाली है। जल्दी चलें।' दोनों नगरी के बाहर आए। ___ चलते-चलते दास ने कहा- 'सेठजी! यहां के राजा की कन्या लक्ष्मीवती बहुत सुन्दर है। वह सोलह वर्ष की है और राजा उसके विवाह की निरंतर चिन्ता लिए बैठा है। राजा ने वर के चुनाव के लिए आस-पास के लगभग सौ राजाओं, राजकुमारों के चित्रांकन मंगाए थे। परिहास करने के लिए हमारे राजा ने भी अपने एक राजकुमार की छवि भेजी थी। सभी चित्रांकनों को देखने के पश्चात् राजकुमारी ने हमारे राजकुमार की छविपसन्द की थी। किन्तु छवि के पीछे जो परिचय लिखा हुआ था, उसे देखकर राजा ने अपनी प्रिय पुत्री से निर्णय बदलने के लिए कहा....किन्तु राजकुमारी अपने निर्णय पर अटल रही और उसने गुप्त रूप से एक दूत भेजकर हमारे राजकुमार भीमकुमार को यह संदेश भेजा कि वे यहां आकर उसका अपहरण कर ले जाएं....इस कार्य के लिए आज रात्रि निश्चित हुई और हम कल यहां आ पहुंचे। आज रात को राजकुमारी लक्ष्मीवती का अपहरण कर हम चले जाएंगे। एक बात और है कि हमारे राजकुमार की छवि उतनी ठीक नहीं है, जितनी चित्र में अंकित है।' विक्रम ने मन-ही-मन सोचा-मेरा भाग्य अनुकूल है, अन्यथा आज रात्रि को लक्ष्मीवती चली जाती और उसकी रत्नपेटिका का कोई अता-पता नहीं रहता। अब भीमकुमार उसका अपहरण करे, उससे पहले ही मुझे रत्नपेटिका प्राप्त कर लेनी चाहिए। वीर विक्रमादित्य २४७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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