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'उसका भाग्य!' कहकर विक्रम हंसने लगे।
दोनों बात करते-करते मुख्य बाजार में आ गए। वे एक जवाहरात की दुकान पर आए। जौहरी को एक स्वर्णमुद्रा देते हुए विक्रम ने कहा-'सेठजी! मैं परदेशी हूं। इस स्वर्णमुद्रा के बदले आप मुझे यहां की मुद्राएं दें। मुझे सुगमता होगी।'
जौहरी ने स्वर्णमुद्रा का परीक्षण किया और उसके विनिमय में विक्रम के हाथ में एक थैली थमा दी, जिसमें रौप्य और ताम्र मुद्राएं भरी थीं।
विक्रम ने थैली ले ली। दोनों आगे बढ़े। दास ने कहा- 'सेठजी, आपने बहुत जल्दबाजी की।' 'क्यों? कैसे?'
'आपको दो-चार दूकानों पर पूछताछ करनी चाहिए थी। उस जौहरी ने आपको विनिमय में कितनी मुद्राएं दी हैं, उनको भी आपने नहीं गिना?'
"मित्र ! धन तो हाथ का मैल है। इस पर ममता नहीं रखनी चाहिए। बोलो, अब किस ओर चलना है?'
'यहां से कुछ दूर पर एक पानागार है। मेरे स्वामी को मैरेय पीने की आदत है। एक भांड लेकर लौट आता हूं। क्या आप भी मैरेय-पान करेंगे?' दास ने पूछा।
'नहीं, मित्र! मैं यात्रा के लिए घर से निकला हूं, इसलिए नशा नहीं कर सकता। तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी पी लेना।'
'मैं कैसे पी सकता हूं! मेरे स्वामी ने उतने ही पैसे दिए हैं, जिनसे मैं केवल एक मदिरा भांड ही खरीद सकता हूं।' दास बोला।
'अरे मित्र! पैसे की चिन्ता क्यों करते हो? चलो पानागार में।'
दोनों पानागार की ओर चले। पानागार में भीड़ नहीं थी। दास ने मैरेय का एक भांड खरीदा। विक्रम ने पानागार के मालिक से पूछा
'उत्तम प्रकार का मैरेय है या नहीं?' 'है, श्रीमान्। पांच तासमुद्राओं का एक पात्र ।' 'उससे मूल्यवान् ?' 'दस ताममुद्रा का एक पात्र ।' 'दो पात्र दो।' विक्रम ने आज्ञा दी।
थोड़े ही समय में एक सेवक उत्तम मैरेय के दो प्याले ले आया। दोनों प्याले विक्रम ने अपने ऊंटचालक मित्र को पिला दिए।
फिर दोनों ने एक पनवाड़ी की दूकान से दो पान लिए और उन्हें मुंह में चबाते हुए आरामिका की ओर चल पड़े।
विक्रम ने पूछा-'मित्र! हमने अभी राजभवन तो देखा ही नहीं ?'
२४६ वीर विक्रमादित्य