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________________ 'आश्चर्य! तुम्हारे राजकुमार राजा के अतिथि बनें और तुम्हें इस घासफूल की झोपड़ी में रखें।' _ 'सेठजी! आप यहां से बिल्कुल अनजान हैं । चक्रपुर के राजा और यहां के राजा की जन्मजात शत्रुता है। यदिइन्हें यह ज्ञात हो जाए कि चक्रपुर के राजकुमार यहां आए हुए हैं तो हम दोनों के सिर धड़ से अलग करवा दें। राजकुमार भी यहीं झोंपड़ी में ठहरे हुए हैं।' 'अरे, तुम्हारे राजकुमार तो बहुत साहसिक हैं?' 'नहीं, सेठजी! ऐसी बात नहीं है। यहां अभी एक अवसर प्राप्त हुआ है कि चन्द्रभूप की नाक कट जाए, इसलिए हम यहां आए हैं।' दास बोला। नगरी का तोरणद्वार आ गया था। लोग आ-जा रहे थे। विक्रम ने कहा'मित्र! तुम इस नगरी में पहले कभी आए थे?' . 'जी हां, प्रात: मैं मुखवास लेने आया था।' 'अच्छा, तो हम मुखवास वाले की दूकान पर चलें।' दोनों तोरणद्वार में प्रविष्ट हुए। नगर स्वच्छ और सुन्दर थी। मकान उज्ज्वल और रमणीय थे। सड़कें भी पत्थर की बनी हुई थी। बाजार बड़ा था। __वे दोनों चलते-चलते एक पनवाड़ी की दूकान पर आए। दुकानदार ने पूछा-'क्या चाहिए?' विक्रम ने कहा- 'उत्तम द्रव्य से युक्त दो पान'। 'वैसा पान दो कपर्दिकाओं में मिलेगा।' 'उससे भी उत्तम पान है?' 'हां, सोने के वरक वाला पान दस कपर्दिकाओं में मिलेगा।' 'दो पान दो।' विक्रम बोला। कुछ ही क्षणों में तैयार कर पनवाड़ी ने दो पान विक्रम के हाथों में सौंप दिए। विक्रम ने एक रौप्य मुद्रा निकालकर पनवाड़ी को दे दी। पनवाड़ी विक्रम की ओर देखता रहा। फिर बोला- 'भाई! यह परदेशी सिक्का है?' 'हां, मैं एक परदेशी हूं।' 'किन्तु इस सिक्के का मूल्य मुझे ज्ञात नहीं है।' पानवाले ने कहा। 'कोई बात नहीं है। तुम्हारेपान उत्तम हैं। तुम इस मुद्रा को रख लो।' कहकर विक्रम दास का हाथ पकड़कर चलते बने। दास बोला- 'सेठजी! आपने बहुत उदारता दिखाई। आपने नौ सौ अस्सी मुद्रिकाएं गंवा दीं।' वीर विक्रमादित्य २४५
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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