SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ‘महाराज ! यह मुद्रा विदेशी है। इसके विनिमय में कम-से-कम एक हजार कपर्दिकाएं अवश्य मिलेंगी ।' 'इसे तुम रखो। मैं तुम्हें प्रतिदिन एक रौप्य मुद्रा दूंगा। तुम मेरे भोजन आदि की समुचित व्यवस्था कर देना ।' माली अत्यन्त प्रफुल्लित हो गया। प्रतिदिन एक रौप्य मुद्रा ! एक हजार कपर्दिकाएं! उसने मन-ही-मन सोचा - यह अतिथि श्रीमान् है । किन्तु इसके पास कोई विशेष सामान क्यों नहीं है ? माली को आश्चर्यमुग्ध देखकर विक्रम बोले- 'मुझे नगरी में जाना है। मैं सांझ को लौटूंगा। तुम मुझे मार्ग तो बताओगे न ?' 'हां, सेठजी! किन्तु यदि आपको अभी जाना हो तो मेरा एक अतिथि युवक तैयार हो रहा है। थोड़ा ठहरें, मैं उसे यहीं बुलाकर ले आता हूं।' माली उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही प्रसन्न हृदय से उस युवक के पास पहुंच गया। विक्रम वहां एक खाट पर बैठ गए। उन्होंने सोचा, कहां अवंती नगरी और कहां ताम्रलिप्ति ! कहां मेरा वैभवशाली राजभवन और कहां यह घासफूस की कुटीर ! भाग्यचक्र की गति अत्यन्त विचित्र और रहस्यमयी होती है। इतने में ही वह माली दौड़ता हुआ आया और बोला- 'सेठजी ! पधारो । मेरे अतिथि का ऊंट -चालक नगरी की ओर जा रहा है।' तत्काल विक्रम उठे और अपना थैला लेकर बाहर निकल गए। पचीस वर्ष का एक युवक वृक्ष के नीचे खड़ा था। वह कृष्ण वर्ण का था। उसके वस्त्र दास जैसे थे। उसका शरीर दृढ़ और सुगठित था। विक्रम ने उसके चेहरे की ओर देखा। उन्हें लगा कि यह युवक वाचाल होना चाहिए। दोनों उपवन से बाहर निकले। विक्रम ने पूछा- 'मित्र ! तुम कहां रहते हो ?' 'सेठजी ! मैं एक दास हूं। आप मुझे मित्र ......' बीच में ही विक्रम ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा - 'दास भी मित्र बन सकता है । ' 'आज मैं धन्य हो गया, सेठजी ! मैं चक्रधरपुर राज्य का निवासी हूं और चक्रपुर के राजकुमार भीमकुमार का मुख्य ऊंटचालक हूं।' 'चक्रपुर राज्य ? यह कहां है ?' 'यहा सं दो सौ कोस की दूरी पर है। सेठजी ! आप कहां के निवासी हैं ?' 'मैं मालवदेश का निवासी हूं, यात्रा के लिए निकला हूं। आज यहां आ पहुंचा हूं। तुम भी यात्रा के लिए ही तो निकले हो, क्यों ?' 'अरे सेठजी! मेरे भाग्य में यात्रा कहां ? मैं अपने राजकुमार के साथ आया हूं।' २४४ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy