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'ओह मित्र! तुम्हारा परिचय पाकर मुझे बहुत आनन्द हुआ है। तुम्हारे बिना मैं कैसे रह पाऊंगा? अच्छा, तुम मुझे पुन: कब मिलोगे?'
'जब भी आप मुझे याद करेंगे।' भट्टमात्र बोला।
'राजसिंहासन तो बहुत दूर की बात है, मैं पहले परिस्थिति को जानने का प्रयास करूंगा। क्या-क्या घटित हुआ है, वह जानूंगा। यदि मैं राजा बना तो तुम्हें महामंत्री बनाऊंगा।' विक्रमादित्य ने कहा।
इस प्रकार भविष्य की योजना बनाते-बनाते दोनों विश्राम कर आगे प्रस्थित हो गए।
जहां से अपने गांव का मार्ग, मूल रास्ते से भिन्न पड़ता था, वहां आकर भट्टमात्र बोला-'महाराज! यह है मेरे गांव का मार्ग-किन्तु अच्छा होता यदि आप अपना वेश बदल लेते।'
'परिस्थिति के कारण मुझे यह वेश बहुत अनुकूल लगता है।' विक्रमादित्य ने कहा।
'महाराज! मैं आपको अपने गांव नहीं ले जाऊंगा। क्योंकि जितनी जल्दी आप अवंती पहुंचते हैं, उतना ही अच्छा है।'
दोनों साथी वहां से अलग हो गए।
अवंती नगरी में निराशा छा चुकी थी। अग्निवैताल के उपद्रवों के कारण कोई भी व्यक्ति राजसिंहासन पर बैठना नहीं चाहता था।
विक्रमादित्य की खोज करने के लिए गए हुए सभी व्यक्ति खाली हाथ लौट
आए थे।
अत्यन्त निपुण और पाताल से भी अपराधी को खोज निकालने वाले गुप्तचर भी निराश लौट आए थे।
एक गुप्तचर केवल इतना समाचार ला सका था कि युवराज अपना अश्व एक युवक को सौंप, अपने शस्त्रास्त्र वहीं रखकर, कषाय वस्त्र धारण कर चल पड़े थे। वहां से वे किसी आश्रम में जाकर साधुओं के साथ मिल गए थे।
इन समाचारों से मंत्रिगण और अधिक असमंजस में पड़ गए। राजसिंहासन पर पड़ी हुई किसी दुष्टदेव की कुदृष्टि को दूर करने के लिए मंत्रियों ने दूर-दूर से मंत्र-तंत्र में निष्णात व्यक्तियों को आमंत्रित कर शान्तिपाठ, चण्डीपाठ, होम, बलि, महापूजा आदि अनेक अनुष्ठान कराए, फिर भी लोगों का भय दूर नहीं हो पा रहा था और कोई भी व्यक्ति राजसिंहासन पर बैठने के लिए तैयार नहीं हो पा रहा था।
. मौत को स्वीकार करने के लिए कौन तैयार हो? मनुष्य को कितना ही लाभ क्यों न मिलता हो, कितनी ही बड़ी सत्ता क्यों न हस्तगत होती हो, कितना ही बड़ा १८ वीर विक्रमादित्य