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कटा।
विक्रम भी हंसते हुए बोले, 'ऐसा कोई काम नहीं है, किन्तु मेरे ग्रहयोग ऐसे हैं कि जहां जाता हूं, वहां कोई-न-कोई सुन्दरी मिल ही जाती है।'
'वहां फिर क्यों जाना है?' वैताल ने पूछा।
'तुम्हारी सहायता से मुझे देवदमनी प्राप्त हुई....अब ताम्रलिप्ति के राजा चन्द्रभूप की लक्ष्मीवती नाम की सोलह वर्षीय पुत्री है। उसके पास रत्नों की एक पेटिका है। उसे मुझे लाना है।' विक्रम ने कहा।
___ 'तब तो सुन्दरी-रत्न के साथ ही रत्न-पेटिका आयेगी।' वैताल-पत्नी ने कहा।
'लक्ष्मीवती सुन्दरी-रत्न है या नहीं, मैं नहीं जानता और मेरी कोई वैसी इच्छा भी नहीं है।' विक्रम ने कहा।
'इच्छा तो नहीं....किन्तु संशय तो है ही?' वैताल-पत्नी ने चुटकी लेते हुए कहा।
'विचित्र ग्रहयोग को मैं कैसे टाल सकता हूं?'
वैताल बोला- 'कब चलना है, महाराज?'
'मैं तैयार हूं।' कहकर विक्रम खड़े हुए और एक बाजोट पर पड़ी झोली उठा ली। खूटी पर लटकती तलवार कमर में बांध ली।
वैताल बोला, 'बस, इतना ही सामान?'
'बस, मित्र! दो जोड़ी वस्त्र, अदृश्यकरण गुटिका और कुछ स्वर्ण साथ में लिया है।'
वैताल दम्पति भी उठे। वैताल-पत्नी बोली, 'महाराज! यदि आप चाहेंगे, तो हम दोनों आपके साथ वहीं रुके रहेंगे।'
'नहीं, मैं इस प्रकार तुमको व्यथित करना नहीं चाहता। आवश्यकता होगी तो मैं कभी भी तुम्हें याद कर लूंगा।' विक्रम ने सहज-भाव से कहा। ___ थोड़े ही क्षणों पश्चात् अग्निवैताल अपनी पत्नी और वीर विक्रम को लेकर आकाशमार्ग से उड़ चला।
सूर्योदय से पूर्व ही वैताल ने वीर विक्रम को ताम्रलिप्ति नगरी के परिसर में उतारते हुए कहा, 'महाराज! जो सामने दिखाई दे रही है, वही है ताम्रलिप्ति नगरी। यहां से वह केवल एक कोस की दूरी पर है-यहां जलाशय सुन्दर है, इसीलिए मैंने आपको यहां उतारा है...आप कहें तो आपको नगरी में...'
'नहीं, मित्र! तुम्हारा आभारी हूं। अब मैं यहां निश्चिन्त होकर प्रात:कार्य सम्पन्न कर नगरी में चला जाऊंगा।'
तत्काल वैताल दम्पति अदृश्य हो गया।
वीर विक्रमादित्य २४१