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४५. देवदमनी हार गई देवी सिकोत्तरी की आरती सम्पन्न हुई। सभी देव खड़े हो गए। इन्द्र अपनी पत्नी के साथ सबसे आगे आया। देवदमनी और उसकी दासियां भी खड़ी हो गईं।
बाहर के प्रांगण में बैठे वनवासी भी खड़े हो गए। देव की स्तुति प्रारंभ हुई।
इस अवसर का लाभ उठाते हुए अग्निवैताल ने अपनी पत्नी को मानव सुन्दरी का रूप धारण कर देवदमनी की दासियां के साथ खड़े रहने के लिए कहा।
वैताल-पत्नी ने तत्काल वैसा ही किया। लगभग एक घटिका पर्यन्त स्तुतिगान होता रहा।
इन्द्र की स्तुति पूरी होते ही देवी सिकोत्तरी के गले से तत्काल दो दिव्य पुष्पमालाएं स्वत: निकलकर इन्द्र और उसकी पत्नी के गले में आरोपित हो गईं।
सभी ने उल्लास के साथ देवी सिकोत्तरी का जय-जयकार किया और वृद्ध पुजारी ने सबको चरणामृत दिया।
इस विधि के सम्पन्न होते ही सभामंडप में खड़े देव और देवांगनाएं-सभी अपने-अपने स्थान पर बैठ गए।
गांधर्वलोक के वाद्यकारों ने 'पद्मऋजा' नाम की अपूर्व रागिनी प्रारम्भ की।
और देवदमनी खड़ी हुई...इन्द्र महाराज को नमस्कार कर उसने देवी सिकोत्तरी के समक्ष 'देववंदना' नाम का नृत्य प्रारम्भ किया।
वनवासी के वेश में विक्रम आश्चर्यमुग्ध होकर देवदमनी के रूप-लावण्य को ही निरख रहे थे। ऐसा आकर्षक माधुर्य और ऐसी महान् नृत्यसिद्धि ! क्या देवदमनी कोई अप्सरा है?
पद्मऋजा नाम की रागिनी को विक्रम समझ नहीं पा रहे थे, किन्तु उन्होंने यह अवश्य जान लिया था कि गांधर्वलोक के महासंगीत की यह कोई अपूर्वरागिनी है....इसकी स्वर-लहरियां देवताओं को भी स्थिर-स्तब्ध बना रही हैं।
किन्तु देवदमनी का अंग-मरोड़, हाथ की मुद्राएं, भावों की अभिव्यक्ति, तिरछे नयनों की भावमस्ती और स्वयं की यौवन छटा अद्भुत थी। क्या यही देवदमनी मेरे साथ शतरंज खेलती है ? विक्रम वास्तव में ही उस पर मुग्ध हो रहे थे।
देववन्दना का नृत्य पूरा हुआ। इन्द्र ने प्रसन्न होकर नंदनवन के दिव्य फूलों की एक माला देवदमनी की ओर फेंकी।
देवदमनी ने इन्द्र को नमन कर उस पुष्पमाला को दूर बैठी दासियों की ओर फेंका।
वीर विक्रमादित्य २२५