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________________ और वज्ररत्न की मालाएं, मणिजटित कर्णपूर आदि अनेक अलंकार देखकर राजा विक्रम आश्चर्य-मुग्ध हो गए। ऐसे मूल्यवान् अलंकार देवदमनी को कहां से प्राप्त हुए होंगे ? किसी सम्राट् के यहां भी दुर्लभ ऐसे कौशेय वस्त्र उसने पहन रखे थे। सुकेसरी रंग का कमरपट्ट ! बादल के रंग का कंचुकी-बन्ध और गहरे गुलाबी रंग का उत्तरीय ! वास्तव में देवदमनी देवकन्या की भांति लग रही थी। उसने अपनी विशाल केशराशि का कमलगुच्छ बनाया था और उसमें सुन्दर पुष्प गुंथे थे। विक्रम ने मन-ही- मन सोचा - यह देवदमनी अपूर्व सौन्दर्य से मंडित है....इन्द्र के पास इतनी अप्सराओं के होते हुए भी नृत्यांगना बनने का सौभाग्य इसे कैसे प्राप्त हुआ है ? और विक्रम ने सिकोत्तरी माता की भव्य प्रतिमा की ओर देखा - ' अरे ! क्या यह मणिरत्न की प्रतिमा है या स्फटिक की ? कितनी चमक है ? देखने वालों को ऐसा ही प्रतीत होता है कि साक्षात् देवी सिकोत्तरी सिंहासन पर विराजमान हैं ..... और उसका पुजारी..... अति वृद्ध होने पर भी कितना बलशाली है ? विक्रम अन्य दिशा की ओर देखे, उससे पूर्व ही इन्द्र के मित्र और उनकी पत्नियां वहां पहुंच गयीं। सभी देवी को नमन कर अपने-अपने निर्धारित स्थान पर बैठ गये । कुछ ही क्षणों पश्चात् देवेन्द्र अपनी प्रिया के साथ दृश्य हुए। दोनों ने सिकोत्तरी देवी को भावपूर्ण नमन किया और दिव्य पुष्पों की दो मालाएं पुजारी के हाथ में सौंपीीं....... वहां चार अप्सराएं, आठ-दस देवता, दस-दासियां आ गए। विक्रम ने सोचा - ये सब किस मार्ग से आए होंगे ? किन्तु इस प्रश्न का उत्तर अभी खोज पाना कठिन था। सभी देव-देवी यथा-स्थान बैठ गए.... और वयोवृद्ध पुजारी ने एक हजार एक दीपकों की आरती उतारने की तैयारी की । विक्रम ने यह भी देखा कि गांधर्वों की एक वाद्यमंडली अपने विविध वाद्यों के साथ देवदमनी के पास बैठ गई है। आरती प्रारम्भ हुई । घंटानाद, झालर की झनकार और कांस्यवाद्यों की ध्वनि से अद्भुत वातावरण निर्मित हो रहा था। २२४ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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