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अग्निवैताल की पत्नी ने तत्काल उसे झेल लिया और अपने करंडक में सावधानीपूर्वक रख लिया ।
देवदमनी की चारों दासियों ने अवाक् रहकर उस नयी सुन्दरी की ओर देखा। उन्होंने सोचा, यह दासी देवदमनी की कोई प्रिय सखी प्रतीत होती है और अवंती से ही साथ आयी हो ऐसा लगता है।
और देवदमनी ने दूसरा नृत्य प्रारम्भ किया। इस नृत्य के अनुरूप गांधर्वों एक मस्त रागिनी प्रारम्भ की।
इस दूसरे नृत्य में देवदमनी ने अपनी कला के अद्भुत रूप प्रस्तुत किए। उल्लास और प्रेरणा के भाव उसके अंग-प्रत्यंग से निखरने लगे। सभी देवी-देवता एकटक उसे निहार रहे थे । इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो रहा था और प्रांगण में बैठे हुए विक्रम भी मुग्ध हो रहे थे । उनको यह भी भान नहीं था कि वे यहां किस प्रयोजन से आए हैं ?
वह दूसरा अभिनय नृत्य सम्पन्न हुआ।
इन्द्र ने प्रसन्न होकर एक रत्नजटित नूपुर देवदमनी की ओर उछाला। देवदमनी ने नूपुर को झेलकर इन्द्र और इन्द्राणी के समक्ष मस्तक नमाया और उपहार में प्राप्त नूपुर को दासियों की ओर फेंका। वैताल-पत्नी ने उसे भी चपलता से झेलकर करंडक में रख लिया ।
वैताल-पत्नी ने जो पुष्पमाला और नूपुर करंडक में रखा था उसे वैताल उठा ले गया। प्रांगण में बैठे विक्रम केवल नृत्य, नृत्यांगना और देवसभा में अपने आपको खो बैठे थे।
देवदमनी ने तीसरा नृत्य प्रारम्भ किया। इसमें विदाई के मधुर भाव उभर
रहे थे।
रात्रि का तीसरा प्रहर पूरा होने वाला था और देवदमनी का यह विदाई - नृत्य पूर्णेन्दु की शीतल चांदनी की तरह शोभित हो रहा था ।
वंदना, उल्लास, प्रेरणा और अन्त में विदाई की भावभरी ऊर्मियां । देवता धन्य-धन्य कहने लगे और चौथे प्रहर की एक घटिका के बाद नृत्य पूरा हुआ ।
इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न थे। उन्होंने स्वर्ण की एक डिबिया में मनुष्य को नवयौवन अर्पित करने में समर्थ एक गुटिका रखकर उर्वशी की तरह शोभित होने वाली देवदमनी की ओर उसे फेंका।
देवदमनी ने डिबिया थाम ली । उसने भावपूर्वक नमन कर उस डिबिया को भी दासियों की ओर फेंका। वैताल-पत्नी ने उसे भी बीच में ही थामकर करंडक में रख लिया। उसी क्षण वैताल ने उस डिबिया का हरण कर लिया।
२२६ वीर विक्रमादित्य