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________________ 'क्या तुम पशु-पक्षियों की भाषा जानते हो?' 'हां, महाराज!' विक्रमादित्य ने खड़े होकर कहा-'अच्छा तो चलो, हम सियाल के शब्दों की परीक्षा कर लें। दोनों नदी की ओर चल पड़े। लगभग एक घटिका पर्यन्त नदी के किनारे चलते-चलते विक्रमादित्य की दृष्टि एक पत्थर पर पड़ी। उसका प्रकाश शुक्र के तारे जैसा था। विक्रमादित्य अंगुली-निर्देशपूर्वक भट्टमात्र से बोले-"मित्र! सामने कोई पदार्थ चमकता-सा नजर आ रहा है।' दोनों उस ओर चले। निकटता से देखने पर लगा कि नदी के प्रवाह में बहकर एक नवयुवती का शव उस चट्टान के पास अटक गया है और उसके गले में पहने हुए हार के रत्नों में तारों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है। भट्टमात्र बोल पड़ा-'महाराज! सियाल ने सत्य ही कहा था। यह स्त्री किसी दुर्घटना की शिकार हुई लगती है अथवा नौका उलट गई होगी। अब आप इसके शरीर के आभूषण ले लें। अनायास ही इतना धन बिना भाग्य के प्राप्त नहीं होता।' विक्रम बोला- 'मित्र ! तुम बहुत गुणवान् हो। किन्तु मैं मरे हुए व्यक्ति के अलंकार नहीं ले सकता। तुम ही ले आओ। तुम्हारा दारिद्रय दूर हो जाएगा।' ___ भट्टमात्र बोला-'महाराज! मेरे जैसे गरीब ब्राह्मण के पास ऐसे मूल्यवान् आभूषणों को देखकर लोग मुझे चोर समझेंगे। आप ही इन्हें ले लें।' "मित्र! नहीं, नहीं। मैं ऐसा भाग्यवान् बनना नहीं चाहता। मुझे ऐसा उच्छिष्ट धन नहीं चाहिए।' दोनों तत्काल वहां से लौट पड़े। भट्टमात्र को विक्रम की निर्लोभता देखकर बहुत हर्ष हुआ। आगे चलतेचलते विक्रमादित्य ने कहा-'तुम कोई शकुन की बात कह रहे थेन.....?' 'हां, महाराज! मेरी वह बात बीच में ही रह गई थी। यदि हम एकाध घटिका में प्रस्थान कर देते हैं तो दोनों में से किसी एक को राजयोग होना संभव है।' 'तो हम चलते जाएं', विक्रमादित्य ने कहा। दोनों साथी मंदिर में आए और अपना-अपना सामान लेकर वहां से चल पड़े। ४. अवंती में. अवधूत वेशधारी युवराज विक्रमादित्य और भट्टमात्र-दोनों पन्द्रह दिनों के भीतर मालव प्रदेश की सीमा के पास आ पहुंचे। एक नदी के किनारे दोनों ने स्नानभोजन किया और एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिए लेट गए। १६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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