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भट्टमात्र आश्चर्यचकित रह गया। वह बोल पड़ा- 'महाराज! आपने यह क्या कर डाला? ऐसा दिव्य रत्न....।'
बीच में ही विक्रमादित्य ने कहा- 'तुम्हें तो मेरे भाग्य की परीक्षा करनी थी, वह पूरी हो गई-अवधूत रत्न और कंकड़ में कोई अन्तर नहीं देखता।'
'महाराज! वास्तव में ही आप महान् हैं।'
'महान्तो तुम हो। मेरी परीक्षा करने के लिए तुमने ऐसा समाचार कहा कि मुझे हा दैव! हा दैव! कहना पड़ा।'
दोनों वहां से मुड़े और अन्यत्र पहुंचने के लिए प्रस्थान कर दिया।
दो दिन के पर्वतीय भूमि के प्रवास के पश्चात् वे राजमार्ग पर पहुंच गए। चलते-चलते वे एक छोटे से गांव के पास आए। सांझ हो रही थी। गांव के निकट ही एक नदी बहती थी। दोनों ने पाथेय का भोजन किया और जलपान कर निवृत्त हो गए। वहां से वे गांव में न जाकर वहीं एक शिवालय की चौकी पर रात बिताने के लिए बैठ गए।
रात्रिकाल प्रारम्भ हो गया था। दोनों परस्पर वार्तालाप करते-करते वहीं सो गए। भट्टमात्र के पास एक चादर बिछाने के लिए और एक ओढ़ने के लिए थी। विक्रमादित्य के पास एक मृगचर्म और एक ऊनी शाल थी। दोनों के लिए साधन पर्याप्त थे।
___ मध्यरात्रि का समय । अचानक भट्टमात्र की आंख खुली। उसके कानों से एक सियाल की आवाज टकराई। वह ध्यान से सुनने लगा। वह खड़ा हुआ और चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। अंधकार सघन था। कुछ भी नहीं दीख रहा था। अनजानी धरती-वह असमंजस में पड़ गया। उसने विक्रमादित्य को जगाना चाहा, किन्तु विक्रमादित्य जाग चुके थे और वे भट्टमात्र को देख रहे थे। उन्होंने कहा-'मित्र! अचानक नींद कैसे उड़ गई ?'
'अच्छा हुआ, आप जाग गए, मैं आपको जगाने ही वाला था।' 'क्या कोई भय है?' 'नहीं, एक अच्छा शकुन प्राप्त हुआ है-आप उठे।' 'क्या हमें अभी प्रस्थान करना होगा?'
'हां, महाराज! अभी-अभी एक सियाल बोल रहा था। उसका आशय था कि इस नदी में एक स्त्री का शव तैरता हुआ आ रहा है-उस शव के गले में नवलखा हार है, और भी अनेक अलंकार हैं।'
'क्या सियाल ने यह बात बताई है?' 'हां, इसीलिए मैं जाग गया।'
वीर विक्रमादित्य १५