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________________ भट्टमात्र ने कहा-'आप एक पत्थर फेंककर मेरी बात की परीक्षा कर लें।' विक्रमादित्य ने एक पत्थर हाथ में लेकर कहा- 'पत्थर फेंकने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु मैं 'हा दैव-हा दैव' ऐसा नहीं कहूंगा।' 'इतना तो आपको कहना ही पड़ेगा।' 'नहीं, मित्र! मैं इस प्रकार दीनता नहीं दिखा सकता। तीन लोक के राज्य की प्राप्ति भी होती हो, तो भी सच्चा क्षत्रिय इस प्रकार दीनता नहीं दिखा सकता। तुम पत्थर फेंको, मुझे विश्वास हो जाएगा।' 'मित्र! मनुष्य को जीवन में एक ही बार यहां लाभ प्राप्त होता है। भाग्य मंद भले ही हो, पर एक रत्न तो मिल ही जाता है। मैंने अपने भाग्य की परीक्षा की है।' विक्रमादित्य ने हाथ में पत्थर को ऊपर-नीचे करते हुए कहा- 'मैं दीन बनकर रत्न प्राप्त नहीं करना चाहता।' भट्टमात्र विचारमग्न हो गया। उसने एक युक्ति निकाली। वह बोला-'तो फिर आप पत्थर फेंकें। देखते हैं, क्या चमत्कार होता है।' विक्रमादित्य ने तत्काल उस दरार में पत्थर फेंका। उसी समय भट्टमात्र बोल पड़ा- 'महाराज! एक दु:खद समाचार मैं आपको बता नहीं सका-अवंती की महारानी अनंगसेना ने आत्महत्या कर अपनी इहलीला समाप्त कर डाली।' ये शब्द सुनते ही विक्रमादित्य ने 'हा दैव!', 'हा दैव!', 'हा दैव!' कहा। और उसी क्षण उस पर्वतीय दरार से एक रत्न उछला और विक्रमादित्य के पैरों के पास आ गिरा। रत्न तेजस्वी था-चक्रवर्ती के भण्डार में भी ऐसा मूल्यवान रत्न प्राप्त होना दुर्लभ था। वह सूर्य के समान चमक रहा था। भट्टमात्र ने कहा- 'महाराज! आपके द्वारा 'हा दैव! हा दैव!' का उच्चारण हो, इसीलिए मैंने वह समाचार कहा था। देखा इस दरार में रहने वाले अदृश्य देव का चमत्कार! श्रेष्ठ और आपके भाग्य का अभिनन्दन करने वाला रत्न आपके चरणों में पड़ा है।' 'ओह!' कहते हुए विक्रमादित्य ने रत्न को उठाया और उसको पुन: दरार में फेंकते हुए कहा- 'रत्न देने वाले देव! मैं इस रत्न को स्वीकार नहीं कर सकता। दीनता से याचना करना किसी भी क्षत्रिय को शोभा नहीं देता और तुम्हारी दानभावना भी यहां निष्फल सिद्ध हुई है। तुम्हारे समक्ष जो दीन बनता है, उसे ही तुम रत्नदान करते हो, यह तुम्हारे देवत्व की शोभा नहीं है और तुम्हारी उदारता की तेजस्विता भी नहीं है।' १४ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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