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________________ इस प्रकार तीन बार कहकर उसमें एक पत्थर फेंकता है तो तत्काल उस खाणी से एक मूल्यवान् रत्न उस मनुष्य के चरणों में आ गिरता है।' भट्टमात्र ने कहा। 'तुम मेरा परिहास मत करो-ऐसा आश्चर्य केवल दंतकथाओं में ही है।' 'मैं सच कहता हूं।' ‘पर यह बात मानने में नहीं आती।' 'तोहम उस ओर चलें, मार्गकुछ लंबा है, पर मेरे कथन की प्रतीति होजाएगी।' 'अच्छा, हमारा उद्देश्य ही है घूमना।' विक्रमादित्य ने कहा। और दोनों रोहणाचल पर्वत की ओर चल पड़े। मार्ग में एक छोटा-सा गांव आया। दोनों ने वहां भोजन किया और कुछ विश्राम कर आगे प्रस्थान कर दिया। मध्याह्न के पश्चात् वे दोनों एक गांव में पहुंच गए, जो रोहणाचल पर्वत की तलहटी में बसा हुआ था। कषाय वस्त्रधारी युवक तथा तेजस्वी अवधूत को गांव में आया हुआ जानकर लोग भक्तिभाव से प्रेरित होकर एकत्रित हुए और दोनों को एक देवालय में ठहराया। गांव के संभ्रान्त लोगों ने उन्हें भोजन का निमन्त्रण दिया। भट्टमात्र ने उन्हें सचित कर दिया कि महात्मा सूर्यास्त के पश्चात् अन्न-जल ग्रहण नहीं करते, इसलिए लोगों ने उन्हें सूर्यास्त से पूर्व भोजन से निवृत्त कर दिया। रात के समय गांव के स्त्री-पुरुष महात्मा की वाणी सुनने के लिए देवालय में एकत्रित हुए। अवधूत वेशधारी विक्रमादित्य ने उपस्थित जनता को धर्मोपदेश दिया और दुराचार से दूर रहने की सीख दी। __गांव के नर-नारी उपदेश से संतुष्ट हुए। दो-चार भजन-गायकों ने भजन गाया। एक वृद्ध पुरुष ने अवधूत से भजन गाने का अनुरोध किया। विक्रमादित्य ने एक भजन-गायक से तंबूरा लेकर उसके दोनों तारों का षड्ज और पंचम-स्वर में संधान कर, 'देशराग' में प्रभु-कीर्तन का एक सरस भजन प्रस्तुत किया। शास्त्रीय गीत, हृदयवेधक राग और नौजवान योगी का अति मधुर स्वर! गांव के लोग धन्य-धन्य हो गए। और दोनों प्रवासी पश्चिम रात्रि में उस गांव से प्रस्थान कर रोहणाचल की ओर चल पड़े। सूर्योदय होते-होते दोनों उस पर्वतीय दरार के पास पहुंच गए। पर्वत अधिक ऊंचा नहीं था, किन्तु उसकी चढ़ाई कठिन प्रतीत हो रही थी और वह दरार ऐसी लग रही थी, मानो कि वह पाताल तक पहुंच गई हो। वीर विक्रमादित्य १३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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