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'नहीं, भट्टमात्र! अब मुझे उसमें कोई रस नहीं है। मेरे बड़े भाई समर्थ हैं, इसलिए मालव की जनता कभी दु:खी नहीं हो सकती, ऐसा मेरा अटूट विश्वास है।'
भट्टमात्र का मन हुआ कि वह मालव देश की सारी स्थिति अवधूत के समक्ष स्पष्ट कर दे, किन्तु उसने सोचा-सम्भव है मालव की स्थिति की विडम्बना को अचानक सुनकर अवधूत का मन टूट जाए। उसने कहा-'महाराज! जन्मभूमि का इस प्रकार अनादर...।'
बीच में विक्रमादित्य ने कहा- 'जन्मभूमि के प्रति मेरे मन में जो अनुराग है, उसको मैं ही जानता हूं, दूसरा नहीं। मैं एक क्षत्रिय हूं। बड़े भाई को जो मैंने वचन दिया है, उसका लोप मैं कैसे कर सकता हूं?'
'धन्य हैं आपके महाप्रण को!' 'मित्र! मैंने धन्यवाद पाने के लिए अपना परिचय नहीं दिया है....।'
'कृपानाथ! मैंने धन्यवाद निरर्थक नहीं दिया है। इस प्रकार बिना किसी हेतु के किसी को देश-निष्कासन मिलता है, तो वह अन्याय का प्रतिकार करने के लिए आकाश-पाताल एक कर देता है-अथवा शत्रु राजा से मिलकर भयंकर युद्ध भड़का देता है-आप इन सबसे दूर रहे।'
_ 'भट्टमात्र! मैंने तो अपना कर्तव्य निभाया है। पिता-तुल्य बड़े भाई के प्रति मन में वैर जागे ही क्यों? ऐसे विचार तो एक दुष्ट ही कर सकता है। मेरे भाई बुद्धिमान, शांत और उदार हैं। मुझे देश-निष्कासन की आज्ञा उन्होंने दी, इसका कारण मेरी समझ में नहीं आया। संभव है कि अज्ञात में मेरे द्वारा कोई अपराध हो गया हो अथवा मेरे अशुभ कर्मों के उदय से ऐसा घटित हुआ हो।' विक्रमादित्य ने कहा।
इस प्रकार दोनों बातें करते-करते सो गए। दूसरे दिन प्रात:प्रवास पर चलना था। दोनों उठे। स्नान आदि से निवृत्त होकर प्रवास के लिए तैयार हुए। इतने में ही भट्टमात्र ने कहा- 'महाराज!.....
बीच में टोकते हुए विक्रमादित्य ने कहा- 'तुम मुझे महाराज मत कहो। मैं तो तुम्हारा मित्र और अवधूत हूं।'
__'मुझे आपकी भाग्य रेखाएं सब कुछ बता जाती हैं-आप किसी महान् राज्य के अधिपति बनने वाले हैं। इतना ही नहीं, आप एक शक्तिशाली और समर्थ महापुरुष होंगे-फिर भी मैं अवधूत ही कहूंगा।' भट्टमात्र बोला।
'अच्छा बोलो, तुम क्या कहना चाहते हो?' ___ 'यहां से दस कोस की दूरी पर रोहणाचल पर्वत है-पर्वत छोटा है, पर वहां एक खाणी-पर्वतीय दरार चामत्कारिक है। कोई भी मनुष्य हा दैव, हा दैव'
१२ वीर विक्रमादित्य