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एक ही रात्रि के सहवास से दोनों मित्र बन गए और विक्रमादित्य एक रात वहां अधिक ठहरे।
दूसरे दिन दोनों एक साथ प्रवास के लिए निकल पड़े।
३. निर्लोभी जब दो व्यक्तियों में स्नेहभरी मैत्री होती है, तब परस्पर विश्वास का सत्य अंकुरित हो जाता है, फिर मन की कोई भी गुप्त बात एक-दूसरे से छिपी भी नहीं रह सकती।
विक्रमादित्य ने अपने देश-निष्कासन की वेदना को बराबर पचाकर रखा था। उन्होंने अपना दोष देखने का भरपूर प्रयास किया, किन्तु कोई दोष दिखाई नहीं दिया। अभी उन्होंने यौवन के प्रथम सोपान पर पैर रखा था, किन्तु मन कभी चंचल नहीं हुआ और उन्होंने कभी किसी नारी को वासना की दृष्टि से नहीं देखा था। उनके मन में किसी नारी ने अभी स्थान नहीं जमाया था। वे अपने बड़े भाई भर्तहरि की छाया में एक अबोध बालक की भांति रह रहे थे और धनुर्विद्या को हस्तगत करने के लिए अपनी शक्ति लगा रहे थे। उन्हें यह भी स्मृति नहीं थी कि उन्होंने कभी बड़े भाई या भाभी का तथा अन्य किसी का अपमान किया हो। इतना होने पर भी देश-निष्कासन का कारण क्या बना, यह उन्हें ज्ञात नहीं हो सका और यह प्रश्न उनके मन में दबी आग की भांति पड़ा था।
स्थंभन तीर्थ से वे भट्टमात्र के साथ यात्रा पर निकल पड़े और मार्ग में आठ दिन के निकट सहवास से दोनों की मैत्री दृढ़ हुई और एक दिन विक्रमादित्य ने अपने देश-निष्कासन की घटना भट्टमात्र को बताते हुए अपना पूरा परिचय दे डाला।
भट्टमात्र ने आकृति-विज्ञान के आधार पर यह निश्चय कर लिया था कि ये अवधूत नहीं, कोई राजकुमार हैं-और विक्रमादित्य से पूरा परिचय सुनकर भट्टमात्र को अपनी विद्या की सत्यता पर सात्विक संतोष हुआ।
भट्टमात्र को मालव देश की अनेक घटनाएं ज्ञात थीं, पर उसने अभी तक अवधूत से उनकी चर्चा नहीं की थी।
विक्रमादित्य का पूरा परिचय जान लेने के पश्चात् भट्टमात्र ने अवधूत के दोनों हाथ पकड़कर कहा-"मित्र! आज मेरा मन शान्त हुआ है-मेरा शास्त्र मुझे स्पष्ट रूप से यह बता रहा था कि आप अवधूत नहीं, एक राजकुमार हैं।'
'आपका शास्त्र सत्य साबित हुआ न?' 'हां, किन्तु मालव देश की आज क्या स्थिति है, क्या आपने कुछ सुना
वीर विक्रमादित्य ११