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ज्योतिषी ने एक चौकी पर आसन बिछाया । विक्रमादित्य को उस पर बिठाकर पूछा - 'महात्मन्! आपके ललाट की रेखाओं को देखकर मैं चमत्कृत हो गया हूं।'
विक्रम ने हंसते हुए कहा - 'चमत्कृत होने जैसी क्या बात है ?'
'महात्मन् ! चमत्कृत होने जैसी ही बात है। आपकी आकृति ने मेरे मन में भारी संशय पैदा कर दिया है। आपके मस्तक पर राजमुकुट होना चाहिए। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि यह सब कैसे हुआ ?'
विक्रम ने प्रश्न किया- 'महाराज ! आपका शुभ नाम ?'
'मैं मालव देश का निवासी हूं। मैं एक गरीब ब्राह्मण हूं। मेरा नाम हैभट्टा । मैं जब पांच वर्ष का था तब से अभ्यास कर रहा हूं।'
'भट्टमात्र ? बड़ा मधुर नाम है ।'
‘किन्तु आपने मेरे प्रश्न का उत्तर देने की कृपा नहीं की। आपकी उम्र मेरी दृष्टि में बीस वर्ष होनी चाहिए ।'
'भट्टमात्रजी ! त्यागियों को नाम का मोह नहीं होता । भूतकाल का स्मरण करना भी त्यागियों के लिए शोभा नहीं देता ।'
'कृपावतार ! तो मुझे पुन: काशी जाना पड़ेगा ?'
'क्यों?'
'मेरी विद्या अपरिपक्व है, ऐसा मानकर !'
'भाई ! विद्या तो एक विशाल सागर है। वह कभी न्यून नहीं होता। वह कभी नहीं छलकता - और उसको केवली के अतिरिक्त कोई भी नहीं जान सकता।'
'केवली भगवान ?'
'हां, भट्टमात्रजी ! श्रमण संस्कृति के अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ।' 'तो क्या आप जैन दर्शन के..... ।'
'साधु को सभी दर्शनों का अभ्यास करना चाहिए - सर्व दर्शन का सम्मान रखना उनका कर्त्तव्य है ।' विक्रम ने कहा ।
'योगीश्वर ! मेरी विद्या मुझे आपका अतिरिक्त परिचय दे रही है।' 'विद्या या आपका मन ?'
बीच में ही भट्टमात्र ने कहा - 'महाराज ! मेरी विद्या कभी असत्य नहीं हुई। आप उच्चकुलोत्पन्न राजकुमार हैं और आपकी आकृति में मुझे राजयोग दीख रहा है। आप छिपाते हैं, परन्तु भाल पर अंकित रेखाएं आपको छिपा नहीं सकतीं।' विक्रम के हृदय में भट्टमात्र के प्रति बहुत सम्मान पैदा हुआ। फिर दोनों के बीच चर्चा हुई। विक्रम ने इतना सा कहा कि वह एक राजकुमार है और पर्यटन के लिए निकला है । इसके अतिरिक्त और कुछ भी परिचय नहीं दिया ।
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१० वीर विक्रमादित्य