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गर्व के भार से हल्के हुए विक्रम अश्व पर आरूढ़ होकर अवंती की ओर गए। जैसे ही वे राजभवन पहुंचे और सोपान श्रेणी से चढ़ने लगे, वहीं नगर के सुप्रसिद्ध सेठ आर्य धनदत्त आ पहुंचे। विक्रम खड़े रह गए। धनदत्त ने हाथ जोड़कर कहा-'कृपानाथ! अभी आपको मेरे साथ चलना होगा।'
विक्रम ने प्रसन्न स्वरों में पूछा-'अभी?'
धनदत्त बोला- 'मेरे यहां आज एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ है। जैसे ही रात आयी, वह नवजात शिशु बोलने लगा कि महाराज विक्रम को मेरे पास बुलाओ। मेरा उनसे काम है। इसलिए मैं आपके पास आया हूं।
विक्रम बोले- 'सेठजी! यह तो मानने जैसी बात नहीं है। अभी तो जन्मा है, एक रात भी नहीं बीती है, वह कैसे बोल सकता है?'
धनदत्त ने कहा-'कृपानाथ! असत्य बोलने का कोई कारण नहीं है। मैं क्यों असत्य बोलूं ? हम सब आश्चर्यमग्न हैं।'
विक्रम तत्काल रथ में बैठकर धनदत्त के भवन की ओर चल पड़े। उनके पीछे महाप्रतिहार और सेवक भी गए। विक्रम ने सोचा-आज का दिन विचित्र दिन है। एक के बाद दूसरा आश्चर्य चल रहा है। बहुत विचित्रता है। मैंने आज महामंत्री को दान बन्द करने को कहा, उसे आश्चर्य हुआ। फिर तो एक के बाद दूसरा आश्चर्य घटित होता ही गया।
__ थोड़े समय में ही रथ धनदत्त के भवन में पहुंचा। धनदत्त की पत्नी ने पूरे बारह वर्ष पश्चात् पुत्र-रत्न का प्रसव किया था और यही पुत्र जन्मते ही बोलने लग गया।
धनदत्त महाराजा विक्रम को लेकर बालक के पास गया। पालने में बालक सो रहा था। उसने विक्रम को देखते ही कहा-'आओ, विक्रम ! मुझे पहचाना या नहीं?
राजा विक्रम अवाक् बनकर बालक की ओर देखने लगे। बालक बोला'विक्रम ! नौ महीने दस दिन पहले की बात याद करो। तुम वन में भटक गए थे। मैंने तुमको अपनी गुफा में आश्रय दिया और तुम्हारा आतिथ्य करते हुए हम दोनोंमैं और मेरी पत्नी मारे गए। कुछ याद करो।'
'हां, अरे भील दम्पति! मैं तो तुम दोनों को कभी का भूल गया था।'
बालक बोला- 'राजन् ! दान और उपकार की निष्फलता को देखकर तुम्हारे मन में घोर अज्ञान छा गया था। किन्तु आज तुम देख रहे हो कि मेरे द्वारा किये गए सामान्य दान के परिणामस्वरूप मैं एक धनकुबेर के घर एकाकी पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ हूं।' २०८ वीर विक्रमादित्य