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फिर तीनों उस कमरे की ओर गए। कमरा खुला था। वे दोनों कल्लोल कर रहे थे। तीनों कमरे में घुसे और उस किसान ने ललकारा । वह दुष्ट अपने पलंग से उठा और जोर-जोर से बोला- 'मुझे लगता है कि आज मौत तुम दोनों को यहां घसीट लायी है।' यह कहकर वह दुष्ट विक्रम और किसान की ओर बढ़ा। इतन में ही वह किसान-बन्धु बीच में कूद पड़ा और उस दुष्ट यार को पकड़ लिया। दोनों के बीच मल्ल-युद्ध होने लगा और वह युद्ध कुछ ही क्षणों तक टिक पाया। उस किसान-बन्धु ने दुष्ट को मार डाला।
विक्रम आश्चर्य में डूब गया। किसान जीवित सिंह-बाघ को पकड़े, उससे भी अधिक शक्तिशाली एक व्यक्ति किसान के सामने ही उसकी पत्नी का उपभोग करे और उससे भी बलिष्ठ व्यक्ति उस यार को मार डाले। इनमें मैं किसके पराक्रम की प्रशंसा करूं? इनके समक्ष मेरे भुजबल की गिनती ही क्या है?
विक्रम इस प्रकार विचार कर रहा था और विचार-ही-विचार में उसके नेत्र बन्द हो गए। जब उसने नेत्र उघाड़े, तब उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा-न घर था, न गांव था, न किसान था, न उसकी पत्नी थी, कुछ भी नहीं था। वे मात्र अपने घोड़े की लगाम थामे एक वृक्ष की ओट में खड़े थे। विक्रम ने आंखें मलीं, अपने अंगों को मरोड़ा। उन्हें विश्वास हो गया कि वे जागृत हैं। तो यह सब कहां गया? इस प्रकार वह विचारों में उलझ रहा था कि वहां अचानक एक दिव्य पुरुष प्रकट होकर बोला- 'हे राजन्! मैं तुम्हारा कुलदेवताहूं। तुम्हारी प्रिय रानी तुम्हारे गर्व के निवारण के लिए तेले की तपस्या कर आराधना कर रही है। राजन्! तुमने जो कुछ देखा, वह सारी मेरे द्वारा रचित माया थी, जो गर्व के शिखर पर से गिरते हुए तुमको बचाने के लिए रची थी। राजन् ! आज तक जिन-जिन लोगों ने शक्ति
और पराक्रम का अहं किया है, वे सब नष्ट हो गए हैं। महाराजा बली का गर्व केवल साढ़े तीन पगों में पाताल में जा दबा। हिरण्यकश्यप का गर्व उसे मौत के मुंह में ले गया। जरासंध के गर्व ने उसका नामोनिशान मिटा डाला। भुजबल के पराक्रम से अपने-आपको अजेय मानने वाला दुर्योधन बुरी मौत मरा। हे राजन्! इस पृथ्वी पर जो भी गर्व करता है, उसका बुरा हाल होता है। जो मनुष्य विद्वत्ता का गर्व करता है, तो उसका ज्ञान वहीं अटक जाता है। जो मनुष्य सम्पत्ति, वैभव और लक्ष्मी का गर्व करता है, उसका ऐश्वर्य कपूर की तरह विलीन हो जाता है। हे राजन! तुम्हारे अहं का कोई बुरा परिणाम आए, उससे पहले ही तुम्हारी रानी कमलावती ने तुम्हें बचा लिया है। एक बात याद रखना, किसी भी बात का अहं जीवन की सबसे बड़ी हार है।'
विक्रम कुलदेवता के चरणों में नत हो गए। कुलदेवता अदृश्य हो गए। विक्रम ने आकाश की ओर देखा । सूर्यास्त होने में अभी बहुत समय शेष था।
वीर विक्रमादित्य २०७