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उनके पीछे अश्वों पर आते हुए महाप्रतिहार और रक्षक कहां हैं, कौन कल्पना कर सकता है?
इस सुनसान वन-प्रदेश में विक्रम को अश्व से उतरते हुए देखकर एक भील, जो उधर से निकल रहा था, ने सोचा-कोई परदेशी पथिक भटक गया है, ऐसा प्रतीत होता है। उसने देखा-अश्व जमीन पर निढाल पड़ा है। वह निकट गया। अश्वारोही को नीचे पड़ा देखकर भील के आश्चर्य का पार नहीं रहा। वह अश्व के निकट गया। अश्व प्राण तोड़ चुका था और अश्वारोही मूर्च्छित पड़ा था।
एक क्षण का भी विलम्ब किए बिना वह भील निकट के बहते झरने पर गया और कंधे पर रखा कपड़ा पानी में भिगोकर दौड़ता हुआ लौटा। मूर्च्छित अश्वारोही को सचेत करने के लिए उसने वह भीगा कपड़ा निचोड़ा। आंख-मुख पर पानी की धार पड़ी। शीतल जल के स्पर्श से विक्रम सचेत हुए। आंखें खोलकर उन्होंने आस-पास देखा। भील बोला-'भाई! तुम बैठो। तुम्हारे चेहरे को देखने से लगता है कि तुम भूख और प्यास से आकुल हो रहे हो। मेरा निवास पास में ही है। तुम मेरे साथ चलो।'
विक्रम उठ बैठे। उन्होंने भील की ओर देखते हुए जमीन पर निढाल पड़े अश्व पर नजर डाली। भील बोला-'भाई! तुम्हारा अश्व तो मर गया। क्या तुम भटक गए हो या किसी कार्यवश इस रास्ते से जा रहे हो?'
विक्रम बोले-'भाई! यह स्थान कौन-सा है?'
'यह स्थान राजा वीर विक्रम का महावन है, किन्तु इस मार्ग से कोई पथिक आता नहीं। तुम कौन हो? कहां रहते हो?'
विक्रम ने भील की ओर प्रसन्न-दृष्टि से देखते हुए कहा-'भाई! जिसका यह वन-प्रदेश है, मैं वही विक्रम हूं। मैं अश्व की परीक्षा करने निकला था। अश्व वायुवेग से दौड़ने लगा। अनेक उपाय करने पर भी वह रुका नहीं। मैं अवंती से कितनी दूर आ गया हूं, इसकी मुझे कल्पना भी नहीं है।'
अपने राजा को सामने देखकर भील का हृदय नाच उठा। वह बोला'महाराज! अवंती यहां से पचास कोस दूर है। आप मेरे आंगन को पवित्र करें।'
विक्रम खड़े हुए और भील के पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर एक टेकड़ी दिखाई दी। रात्रि का अन्धकार था, फिर भी भील उस मार्ग पर चलने का अभ्यस्त था। वह बोला- 'महाराज! इस सामने दीखने वाली टेकड़ी में मेरी गुफा है। आपको वहां आराम मिलेगा।'
दोनों कुछ चले और टेकड़ी पर चढ़ने लगे। गुफा दिखाई दी। विक्रम ने देखा कि गुफा से मंद-मंद प्रकाश आ रहा है। दोनों गुफा में गए। वहां कोई बिछौना
वीर विक्रमादित्य १६७