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सभी ने विक्रम के शब्दों को सराहा और दूसरे ही दिन एक अश्व की परीक्षा करने का निश्चय हो गया।
दूसरे दिन मध्याह्न के पश्चात् कुछेक मंत्रियों, मित्रों, सुभटों और रक्षकों के साथ एक अश्व को लेकर विक्रम गांव के बाहर गए और अश्व की गति, चाल आदि की परीक्षा करने के लिए वे एक छलांग मारकर उस पर आरूढ़ हो गए। उसी क्षण अश्व दोनों पैरों से नृत्य करने लगा। सभी दर्शकों ने धन्य-धन्य का घोष किया। महाप्रतिहार और दस रक्षक भी अपने-अपने अश्वों पर सवार हो गए।
और वीर विक्रम ने अपने तेजस्वी अश्व को गतिमान किया। अश्व चौंका। उसका रक्तथनथना उठा। उसनेवायुवेग से गतिपकड़ी। यहगति देखकर सब अवाक रह गए-वाह-वाह! क्या अश्व है, मानो कि यह वायु की पांखों से उड़ रहा है....! इसकी क्या गति है मानो कि धनुष से छूटा हुआ बाण हो!
दर्शकों ने यही सोचा था कि वीर विक्रम एक चक्कर लगाकर लौट आएंगे। किन्तु अश्व वायुवेग से दौड़ा जा रहा था और बेचारे महाप्रतिहार और सभी रक्षक पीछे रह गये थे। वीर विक्रम का अश्व दृष्टि से ओझल हो गया।
अश्व की गति बहुत तीव्र थी। विक्रम को यह गति बहुत रुचिकर थी। उनको यह विश्वास था कि इस अश्व पर कहीं भी जाने में समय की बचत होगी। किन्तु....अरे, यह क्या? अश्व पुन: मुड़ ही नहीं रहा था। विक्रम जैसे-जैसे अश्व को थामने का प्रयत्न करते थे, अश्व की गति बढ़ती जाती थी।
एक घटिका....दो घटिका....चार घटिका...और सूर्य अस्ताचल की ओर जाने लगा। फिर भी अश्व की गति वैसी ही थी। अश्व किस दिशा में जा रहा है, यह भी विक्रम को ज्ञात नहीं था। अश्व एक वन-प्रदेश में प्रवेश कर चुका था और ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चल रहा था। विक्रम के सभी प्रयत्न निष्फल हो चुके थे। वे अश्व को रोक नहीं पाए।
रात पड़ी। वन-प्रदेश में अंधकार व्याप्त हो गया। अश्व हांफ रहा था, फिर भी वह अविराम गति से दौड़ रहा था। विक्रम भी थककर चूर हो गए थे। इस प्रकार की गति की एक धारा में प्रवास करना सरल कार्य नहीं है।
वन-प्रदेश के एक अगोचर भाग में वह थका-मांदा अश्व अचानक रुक गया। तत्काल विक्रम अश्व से नीचे उतर गए। अश्व कांप रहा था। उसका सांस फूल रहा था। वह तृषा से अत्यन्त आकुल हो रहा था। विक्रम भी थक गए थे। वे एक वृक्ष के नीचे विश्राम लेने के लिए जाएं, उससे पहले ही अश्व धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके प्राण उड़ गए। विक्रम ने यह दृश्य देखा। उनका सिर चकराने लगा। भूख और प्यास से वे आकुल थे। वृक्ष के पास पहुंचते-पहुंचते वे भी मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़े।
१६६ वीर विक्रमादित्य