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________________ डेढ़ वर्ष का समय पलक भर में बीत गया। डेढ़ वर्ष के अल्पकाल में विक्रम ने ग्यारह राजाओं का मानमर्दन और बाईस राज-कन्याओं के साथ पाणिग्रहण कर अपने अन्त:पुर को बढ़ाया। उन्होंने अपनी एक पत्नी देवी सुकुमारी को भुला दिया था। वह अपने पीहर में रहती हुई अपने एकाकी पुत्र के लालन-पालन में समय बीता रही थी। विक्रम स्वस्थ थे, तेजस्वी थे, युवा थे और कीर्ति के अश्वों पर चढ़े हुए थे। इसलिए अनेक राज-कन्याओं ने इन्हें मन-ही-मन अपना पति स्वीकार कर लिया था। उन सबके साथ पाणिग्रहण करना इनके लिए अनिवार्य हो गया था। एक दिन विक्रम राजभवन के उद्यान के एक बैठक-गृह में अपने मंत्रियों, सुभटों तथा अन्यान्य राज्याधिकारियों के साथ बैठे थे। उस समय एक परदेशी अत्यन्त सुन्दर, तेजस्वी और शुभ लक्षणों से युक्त दो अश्वों को लेकर उस उपवन में आया। द्वार के पास खड़े महाप्रतिहार ने पूछा- 'भाई, कैसे आए हो?' परदेशी बोला-'मालवनाथ की प्रशंसा सुनकर मैं अपने दोनों अश्वों को बेचने आया हूं।' महाप्रतिहार ने यह समाचार महाराजा वीर विक्रम को दिया। वीर विक्रम के मन में उत्तम अश्वों के प्रति बहुत अनुराग था। वे अश्वों का निरीक्षण करने के लिए बैठक-गृह से बाहर आए और अश्वों को देखते ही उनके प्रति आकृष्ट हो गए। दोनों अश्व उत्तम लक्षणों वाले थे। दोनों अश्वों के शरीर पर पंच-कल्याणक थे। उनकी अश्वशाला में हजारों अश्व थे, पर इन-जैसा एक भी अश्व नहीं था। विक्रम ने महामंत्री की ओर देखा। महामंत्री ने कहा- 'महाराज! अश्व अत्यन्त सुन्दर हैं, किन्तु इनकी सही परीक्षा आप ही कर सकेंगे, क्योंकि अश्वशास्त्र में आप निष्णात हैं।' विक्रम ने महाबलाधिकृत की ओर देखा । महाबलाधिकृत ने उत्साह भरे स्वरों में कहा- 'कृपानाथ! दोनों अश्व देवकोटि के हैं, उत्तम हैं।' विक्रम ने दोनों अश्व खरीद लिये और परदेशी ने जो मूल्य मांगा, उससे अधिक मूल्य देकर उसे संतुष्ट किया। दो सेवक दोनों अश्वों को अश्वशाला में ले गए। एक सुभट बोला-'कृपानाथ! अश्व अति उत्तम हैं, परन्तु एक बार परीक्षा कर इन्हें खरीदा जाता तो अच्छा था।' विक्रम ने कहा- 'अब अश्व अपने ही अधीन हैं। जब चाहेंगे, तब परीक्षा कर लेंगे। हम ठगे गये नहीं हैं।' वीर विक्रमादित्य १६५
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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