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सौ वीर वीरगति को प्राप्त हुए हैं । मैं प्रतिशोध लेना नहीं चाहता। आपके सभी बंदी सैनिकों को भी मैं मुक्त करता हूं।'
शंखपाद नौजवान विक्रम के चरणों में लुठ गया और बोला-'कृपानाथ! आपने मुझे क्षमा किया है, यह आपका महान् उपकार है। आपने मेरी आंखें खोल दीं। अब आप मेरी एक प्रार्थना स्वीकार करें।'
विक्रम ने हंसकर कहा-'मित्र! यदि आपको बत्तीस पुतली वाला सिंहासन चाहिए तो भेज दूं....।'
__ 'नहीं.....महाराज!....ऐसे सिंहासन पर बैठने की योग्यता कहां है मेरे में। मैं दूसरी प्रार्थना करना चाहता हूं।'
विक्रम ने प्रश्नभरी दृष्टि से शंखपाद की ओर देखा।
शंखपाद ने कहा- 'महाराज! आप हमारी राजधानी में पधारें। मेरी बहन लीलादेवी अत्यन्त सुन्दर और सुयोग्य है। उसका पाणिग्रहण कर आप हमें कृतार्थ करें।'
विक्रम ने शंखपाद की इस प्रार्थना को स्वीकार किया। वे राजधानी में गए। सिंधु देश की जनता ने उनका भावभीना स्वागत किया।
तीसरे दिन विक्रम के साथ लीलादेवी का विवाह हो गया। महाराजा शंखपाद ने दहेज में प्रचुर धन दिया। महाराजा विक्रम आठ दिन तक वहां रुके और नौवें दिन अपनी अजेय सेना और नववधू को साथ ले मालव देश की ओर चल पड़े।
४०. भील दम्पति सिंधुराज शंखपाद पर विजय प्राप्त करने और उनकी बहन लीलादेवी के साथ विवाह करने की बात अवंती में पहुंच गई थी। अवंती की प्रजा अपने धीर-उदार राजा के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी।
और जिस दिन वीर विक्रम अवंती से सात कोस दूर रहे, तब हजारों पुरवासी जन अपने प्रिय राजा का वर्धापन करने के लिए वहां पहुंच गए।
और दूसरे दिन प्रथम प्रहर में जनता के अपूर्व उत्साह के साथ वीर विक्रम ने अपनी नयी वधू के साथ अवंती में प्रवेश किया। राजभवन में जब पहुंचे, तब वहां दोनों रानियों ने अपने स्वामी और नयी रानी को पुष्पमालाएं अर्पित की।
सिंधु देश की विजय का समाचार नगरी के घर-घर में प्रसृत हो गया। लोगों के मन में अपने महाराजा के प्रति प्रेम का समुद्र उमड़ पड़ा। उन्होंने अपना प्रेमभाव व्यक्त करने के लिए आठ दिनों तक विजयोत्सव मनाया। १६४ वीर विक्रमादित्य