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दूत ने यह संदेश दिया और महाराजा शंखपाद ने इसका उत्तर दिया उस दूत का सिर धड़ से अलग कर।
दूसरे दिन भयंकर युद्ध छिड़ गया।
चार दिनों तक घमासान युद्ध हुआ। अनेक वीर योद्धा मारेगए। हजारों घायल हो गए। सिंधु देश की सेना के पैर उखड़ने लगे। वे पीछे हटने लगे।
राजा विक्रम ने अपने सेनानायकों से मंत्रणा कर यह निश्चित किया कि महाराजा शंखपाद को जीवित बंदी बना लिया जाए। युद्ध भयानक स्थिति से गुजर रहा था। सिंधु देश की सेना समरभूमि को छोड़कर भागने लगी। मालव देश के सैनिकों ने उसका पीछा किया। सातवें दिन शंखपाद अपने सेनापतियों के साथ शरणागत हो गया। सिंधु देश के लगभग बारह हजार सैनिक पकड़े गए और सभी ने वीर विक्रम की शरण ली।
महाराजा विक्रम की जीत हुई। महाराजा शंखपाद पराजित हुए।
महाराजा विक्रम अपने साथियों के साथ एक विशाल पटगृह में बैठे थे। इतने में ही उनके सेनानायकों ने शंखपाद को बन्दी अवस्था में उपस्थित किया। सेनापति ने विक्रम से कहा-'कृपानाथ! अपने भुजबल से मालव की जनता को पीस देने का स्वप्न देखने वाले राजा शंखपाद आपके समक्ष उपस्थित हैं।।
विक्रम ने देखा कि शंखपाद मस्तक झुकाए खड़ा है। उन्होंने महाप्रतिहार अजय से कहा-'अजय! राजा शंखपाद को बंधनमुक्त करो।'
तत्काल सेनापति ने कहा-'कृपानाथ! आप यह क्या कर रहे हैं?'
विक्रम ने मुस्कराते हुए कहा- 'सेनापतिजी! मैंने क्षात्र-धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली आज्ञा दी है। हम किसी के राज्य पर आक्रमण करना नहीं चाहते थे। हम मात्र शंखपाद को क्षात्र-धर्म की स्मृति कराना चाहते थे और वह हमने किया है।' __ शंखपाद को बंधनमुक्त कर दिया गया। फिर विक्रम ने शंखपाद को अनेक शिक्षाप्रद बातें कहीं।
शंखपाद विक्रम की उदारता से गद्गद हो गया। उसने कहा-'महाराज! आपने मेरे पर अपार कृपा की है। यदि आप मुझे बोधपाठ नहीं देते तो मेरा गर्व आकाश को छूने लगता। आप महान् हैं।'
विक्रम ने खड़े होकर शंखपाद को छाती से लगाते हुए कहा- 'राजन्! अब आप मुक्त हैं। एक बात याद रखें, मनुष्य का गर्व उसको माटी में मिला डालता है। इस छोटे से संग्राम में आपके शूरवीरों का काफी नुकसान हुआ है। मेरे भी चौदह
वीर विक्रमादित्य १६३