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________________ पवनवेगी ऊंटनी पर इस संदेश को लेकर दूत सिन्धु देश से रवाना हुआ और सातवें दिन मालव देश की राजधानी अवंती में आ पहुंचा। उसने सिन्धुपति का संदेश-पत्र विक्रमादित्य के हाथों में सौंप दिया। ___महाराजा विक्रमादित्य ने सिन्धुपति का संदेश-पत्र महामंत्री को दिया और राजसभा के नियमानुसार उसका वाचन हुआ। पत्र को सुनकर सभासद तिलमिला उठे। उस पत्र में मालवपति को अपमानित करने जैसी भावना थी और धमकी भी थी। महाराजा विक्रमादित्य ने दूत की ओर दृष्टिपात कर कहा-'दूत! महाराजा सिन्धुपति क्षत्रिय हैं, यह बात वे जानते हैं या नहीं, इसमें मुझे संदेह है। क्योंकि राज्य-दण्ड, राज्य-सिंहासन, राज्य-सत्ता और राज्य-लक्ष्मी-येचार चीजें मूल्य से प्राप्त नहीं की जा सकतीं। तुम अपने स्वामी से कहना कि विक्रम व्यापारी नहीं हैं, एक क्षत्रिय हैं। यह सिंहासन मूल्य से प्राप्त नहीं हो सकता। इसके पीछे सर्जककी अनेक वर्षों की तपस्या है। दूत! तुम अपने राजेश्वर को बताना कि मूल्य वस्तु का हो सकता है, परन्तु भावना और तपस्या का मूल्य नहीं आंका जा सकता।' राजदूत ने हाथ जोड़कर विनम्र शब्दों में कहा-'राजन्! यदि हम दीर्घदृष्टि से सोचते हैं तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सिंहासन मात्र एक वस्तु है। वस्तु का मूल्य होता है। आप यदि इसे किसी दूसरी शर्त पर देना चाहें तो बताएं।' महामंत्री ने कहा-'राजदूत! महाराज विक्रम नेजो सत्य कहा है, वह तुम्हारी समझ में नहीं आया, ऐसा लगता है। वस्तु का विनिमय करना व्यापारी का काम है, क्षत्रिय का नहीं। यदि महाराजा शंखपादभेंट-स्वरूप सिंहासन की याचना करते तो मालवनाथ अवश्य ही उनकी याचना पूर्ण करते, क्योंकि उनके द्वार से कोई भी याचक खाली नहीं लौटता। किन्तु महाराजा शंखपाद ने संदेश-पत्र में धमकी दी है, इसका स्पष्ट अर्थ तुम बता सकते हो?' दूत ने महामंत्री से कहा- 'मंत्रीश्वर ! मेरे स्वामी का संकेत स्पष्ट है, फिर भी आप स्पष्टता चाहते हैं तो मुझे कहना पड़ेगा कि महाराजा शंखपाद एक बलवान महारथी हैं। उनका भुजबल गांधार तक व्याप्त है। उनके सैनिक रणशूर हैं। वे पीछे हटना जानते ही नहीं। उनकी अश्व-सेना संसार का एक आश्चर्य है। किन्तु एक छोटे-से प्रश्न के लिए मित्र-राज्यों से टकराहट हो, यह उचित नहीं है।' विक्रम ने कहा-'राजदूत! मेरी शर्त से ही यह सिंहासन प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं।' दूत ने सोचा, सिन्धु की सेना की कीर्ति सुनकर विक्रम भयभीत हो गये हैं। वह हर्ष-भरे स्वरों में बोला- 'कृपानाथ! आपकी शर्त क्या है, वह मुझे बताएं।' विक्रम बोले- 'राजदूत! सिंधुपति से तुम कहना कि वे अवंती में अवश्य पधारें और जब मैं प्रात:काल याचकों को दान देता हूं, उस समय याचक बनकर १६० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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