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________________ इस चामत्कारिक सिंहासन की याचना करें। मैं उदारतापूर्वक यह सिंहासन उन्हें दान में दूंगा। यदि उन्हें अपनी शक्ति का गर्व है तो वे अपनी शक्ति के साथ यहां आएं, मैं यथायोग्य उनका स्वागत करूंगा और वे अपनी शक्ति के सहारे इस सिंहासन को प्राप्त करें। यदि वे यहां आने का श्रम न उठाना चाहें तो मैं उनके इस संदेश का उत्तर देने और उनकी शक्ति की थाह लेने स्वयं वहां पहुंच जाऊंगा।' दूत ने रोष-भरे स्वरों में कहा- 'राजन् ! आपने हमारे महाराजा का बहुत बड़ा तिरस्कार किया है। क्षत्रिय कभी याचकनहीं होता। वह अपनी इच्छा शक्ति के सहारे ही पूरी करता है, इसलिए आप युद्ध के लिए तैयार रहें।' दूसरे ही दिन महाराजा विक्रमादित्य ने महाबलाधिकृत को चतुरंगिणी सेना सज्जित करने की आज्ञा दे दी। ३६. जय-पराजय राजा शंखपाद का दूत सिंधु देश की राजधानी में पहुंचे, उससे पूर्व ही अवंती से रवाना हुआ गुप्तचर सीधे रास्ते से वहां पहुंच गया। दूत शंखपाद की राजसभा में पहुंचा। राजा ने अर्थभरी दृष्टि से उसकी ओर देखा। दूत शंखपाद के पास गया, प्रणाम कर बोला-'सिंधुपति की जय हो। आपके संदेश का जवाब मुझे मिल गया है। आप जहां कहें, वहां उसे निवेदित करूं।' शंखपाद बोले-'यहीं बता दे। तू इतना घबराया हुआ क्यों है?' दूत ने कहा-'कृपानाथ! वहां की बात ही कुछ अजब-सी है। बत्तीस पुतलियों वाले सिंहासन के विषय में आपने जो सुना है, उससे भी वह अधिक सुन्दर है। मैंने स्वयं अपनी आंखों से उसे देखा है। स्वर्ण की सुन्दर और जीवंत दीखने वाली पुतलियां, विक्रम जब सिंहासन पर बैठते हैं, तब हावभाव, नृत्य आदि करती हैं। जब वे बोलती हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है कि बत्तीस लड़कियां सचेतन अवस्था में बोल रही हैं। वह सिंहासन अत्यन्त मूल्यवान् रत्नों से जटित है। ऐसा सिंहासन इन्द्र के पास भी होगा या नहीं, इसमें संदेह है। इस सिंहासन को देखकर मैंने पहले तो सोचा कि आपका संदेश विक्रम को नदूं, किन्तु मैंने वह संदेश विक्रम को दिया। संदेश को पढ़ने के पश्चात् महाराजा विक्रम ने कहा- 'राज्यदण्ड, राज्यसिंहासन, राज्यसत्ता और राज्यलक्ष्मी-येचार मूल्य से नहीं मिलती। विक्रम ने यह भी कहा कि वे क्षत्रिय हैं, विनिमय करने वाले बनिये नहीं हैं। मैंने उनको समझाया और किसी भी शर्त पर सिंहासन देने की बात कही। उन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार करने के बदले विचित्र उत्तर दिया, जिसको बताते हुए मेरी जीभ लड़खड़ा रही है।' वीर विक्रमादित्य १६१
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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