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सभी पदार्थों का मूल्य हो सकता है, किन्तु कला का मूल्य नहीं आंका जा सकता। कला अमूल्य होती है। सिंहासन अमूल्य है, फिर भी मैं नैवेद्य के रूप में तुम्हें एक गांव बख्शीश करता हूं और साथ ही ग्यारह लाख स्वर्ण-मुद्राएं भी देता हूं।'
अमरदेव गद्गद हो गया और महाराजा के चरणों में लुटकर बोला'कृपानाथ! आपने मुझे बहुत दे डाला। कला को देखने वाले अनेक होते हैं, पर उसके पुजारी विरले ही मिलते हैं। मेरी वर्षों की साधना आज सफल हुई। यदि मैं कश्मीर से यहां नहीं आता तो मेरी कला-साधना अज्ञात ही रह जाती। आपने मेरा बहुत सम्मान किया है। अब मैं एक यांत्रिक अश्व बनाकर आपको समर्पित करूंगा।'
विक्रम ने शिल्पी के दोनों हाथ पकड़कर उठाते हुए कहा-"मित्र! आज से तुम अवंती के नागरिक बन गए हो। तुम्हारी कला-साधना दिनों-दिन वृद्धिंगत होती रहे, वह कभी अस्त न हो, इसलिए तुम उसमें नये-नये निखार लाते रहना। मेरे से जो कुछ सहयोग अपेक्षित है, वह पाते रहना।'
राजसभा ने विक्रम का जयघोष किया।
दूसरे ही दिन अमरदेव को गांव का ताम्रपत्र प्राप्त हो गया और ग्यारह लाख स्वर्ण-मुद्राएं भी उसे दे दी गईं।
निराश और दरिद्रता के भार से दबा हुआ शिल्पी अमरदेव अत्यन्त प्रसन्न हुआ और नये जीवन को पाकर धन्य बना।
बत्तीस पुतलियों वाले सिंहासन की चामत्कारिक बातें चारों ओर फैलने लगीं और छह महीनों के पश्चात् अनेक राजा, राजकुमार, राजपुरुष, कलाकार, शिल्पी और सौदागर उस सिंहासन को देखने के लिए आने लगे। सिन्धु देश के प्रतापी राजा ने जब अपने गुप्तचरों के माध्यम से सिंहासन की बात सुनी, तब एक दूत के साथ उन्होंने विक्रम को संदेश भेजा-'राजराजेश्वर मालवपति श्रीविक्रमादित्य के कर-कमलों में इस पत्र द्वारा सिंधुपति राजा शंखपाद यह निवेदन प्रस्तुत करते हैं कि आपने एक चामत्कारिक सिंहासन बनवाया है। इसके फलस्वरूप आपने एक गांव और ग्यारह लाख स्वर्ण-मुद्राएं शिल्पी को दी हैं। मैं आपको विनम्र प्रार्थना करता हूं कि सिंहासन के बदले आपको बीस गांव, बीस हाथी, तीन सौ अश्व और तीन सौ सुन्दर और जवान दासियां तथा एक कोटि स्वर्ण-मुद्राएं देने के लिए तैयार हूं। मुझे विश्वास है आप मेरी इस प्रार्थना पर विचार करेंगे। आप यह भी जानते हैं कि क्षत्रिय अपनी भावना को पूरी करने में सब कुछ न्यौछावर कर डालता है। वह भावना को पूर्ण किए बिना नहीं रहता। आप यह भी जानते ही होंगे कि जीवन में अनेक बार छोटे प्रश्न बहुत बड़े बन जाते हैं और उनका परिणाम होता है विनाश! आपका दिव्य सिंहासन ऐसा ही एक छोटा प्रश्न है और वह मेरी उदारता से हल्का हो जाएगा। आप अवश्य ही मेरी बात पर ध्यान देंगे.....इति।'
वीर विक्रमादित्य १८६