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वैताल ने कहा- 'महाराज! मेरी तेज-तर्रार पत्नी का परिचय तो आपने जान ही लिया है। यदि मैं यथासमय नहीं पहुंचा तो....।'
बीच में ही विक्रम बोले- 'बस....बस....बस.... तुम्हारी प्रिया अदृश्य रहकर तुम्हारी बातें सुन लेगी और तब उसे राजी करने के लिए तुम्हें तपस्या करनी होगी। तुम खुशी से जाओ।'
हंसता-हंसता वैताल अदृश्य हो गया।
स्नान आदि से निवृत्त होकर विक्रम ने दोनों पत्नियों और मंत्रिमण्डल के सदस्यों के समक्ष स्वर्णपुरुष की सारी घटना सुनाई। सारी बातें सुनकर सब आश्चर्यविमूढ़ बन गए।
महामंत्री ने कहा- 'महाराज! आपने बहुत खतरा उठाया है। ऐसा साहस कभी-कभी कठिनाई में डाल देता है।'
'महामंत्री! क्षत्रिय के रक्त में साहस भरा हुआ ही होता है। मनुष्य यदि भय का विचार करता रहे तो कुछ भी नहीं कर सकता।'
स्वर्णपुरुष को राज्यभण्डार में स्थापित कर दिया गया। विक्रम ने उसके दोनों हाथ-पैर काटकर अलग कर दिए। उस स्वर्ण का उपयोग जन-कल्याणकारी कार्यों में प्रारम्भ हुआ। दिन बीता और दूसरे दिन स्वर्णपुरुष के दोनों हाथ और पैर पूर्ववत् निर्मित हो गए। यह कार्य प्रतिदिन होता। अब जन-कल्याण की अनेक योजनाएं प्रारम्भ हुईं और मालवदेश की जनता सुखी रहने लगी।
इधर कश्मीर से जो कलाकार आया था, उसने बत्तीस पुतलियों वाला सिंहासन तैयार कर दिया। वह सिंहासन लकड़ी का था, किन्तु रत्नजटित स्वर्णसा प्रतीत होने लगा। एक दिन शिल्पी अमरदेव वह चामत्कारिक सिंहासन राजा के समक्ष ले गया।
सिंहासन को देखकर महाराजा विक्रमादित्य अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसे राजभवन में रख दिया। शिल्पी अमरदेव ने उस सिंहासन की करामात समग्र राजसभा के समक्ष दिखाई।
ज्योंही महाराजा विक्रमादित्य उस सिंहासन पर बैठे, उस समय बत्तीस पुतलियों ने अपने-अपने अंगों की मरोड़ से विविध हावभाव प्रदर्शित किए। सभी पुतलियों की आंखें रत्नमंडित थीं, इसलिए वे असली आंखें जैसी चमक रही थीं। सभी पुतलियां अपने निश्चित शब्द बोलने लगीं। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए।
शिल्पी की सही साधना तो यही है कि वह जड़ को भी चेतन का रूप दे देता है। शिल्पी अमरदेव ने यंत्ररचना के द्वारा निर्जीव सिंहासन को भी जीवंत बना डाला था। विक्रम ने शिल्पी को छाती से लगाते हुए कहा-'अमरदेव! विश्व में
१८८ वीर विक्रमादित्य