SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८. सिंधुपति का संदेश वीर विक्रम अपने खण्ड में पहुंचें, उससे पूर्व ही वैताल स्वर्णपुरुष को लेकर वहां पहुंच गया। वीर विक्रम राजभवन में प्रविष्ट हुए, उस समय मंत्रिगण, महाप्रतिहार, रानियां आदि सभी अत्यन्त आकुल-व्याकुल हो रहे थे। विक्रम किसी को कुछ भी सूचित किए बिना चले गए थे, इसलिए सब चिन्तित थे। चारों ओर उनकी खोज हो रही थी। महाराजा को प्रसन्नचित्त आते हुए देखकर महाप्रतिहार अजयसेन ने उनका जय-जयकार किया और विक्रम अपने अश्व से नीचे उतरें, उससे पूर्व ही वहां पहुंचकर बोला-'कृपानाथ! हमने पूरी रात आपकी खोजबीन की। आप किस ओर पधार गए थे?' एक सेवक के हाथ में अश्व सौंपकर विक्रम बोले- 'अजय ! मैं एक दूसरे कार्य के लिए गया था। भवन में सब कुशल तो हैं न?' 'हां, महाराज! सभी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। महामंत्री तो कभी से यहां बैठे हैं।' 'चलो, मैं आ रहा हूं', कहकर विक्रम अग्रसर हुए। नीचे के खण्ड में महामंत्री तथा अन्य मंत्री महाराजा का जयनाद सुनकर खण्ड से बाहर निकले और अपने प्रिय राजा को देखकर हर्ष-विभोर हो उठे। महामंत्री भट्टमात्र ने कहा- 'महाराज! बिना किसी को सूचित किए आप कहां चले गए थे?' विक्रम ने हंसते हुए कहा-'कल रात में एक अद्भुत घटना घट गई। आप यहां बैठें, मैं अभी आ रहा हूं।' विक्रम ऊपरी खंड में गए। वहां दोनों रानियां आतुरतापूर्वक प्रतीक्षा कर रही थीं। स्वामी को देखते ही दोनों के नयन आनन्दित हो गए। विक्रम ने कहा'कल रात में जो घटना घटी, वह बड़ी रोचक है। मैं सबको बताऊंगा। पहले स्नान की व्यवस्था करो।' यह कहकर विक्रम अपने कक्ष में गए। वहां उन्होंने देखा कि जमीन पर बिछी हुई एक गद्दी पर स्वर्णपुरुष की विशाल प्रतिमा पड़ी है और वैताल एक आसन पर बैठा है। विक्रम ने मुस्कराते हुए वैताल की ओर देखकर कहा'प्रिय! तुम्हारी गति को मनुष्य कैसे पहुंच पाए? कब आ गए ?' वैताल ने कहा- 'मेरी गति को आप जानते ही हैं। मैं तो वहां से चला और क्षण-भर में यहां पहुंच गया। अब मुझे जाने की आज्ञा दें।' 'प्रिय मित्र! मैं तुम्हारे उपकार को भूल नहीं सकता। मैं तुम्हें जाने की आज्ञा कैसे दूं?' वीर विक्रमादित्य १८७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy