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'राजन्! मैं तुम्हारा उपकार जीवन-भर नहीं भूल सकता। तुमने आज मेरे वर्षों के स्वप्न को साकार किया है। अब कोई भय नहीं है। तुम्हें अब केवल तीन प्रदक्षिणा इस यज्ञकुंड की देनी है।'
दूर खड़ा हुआ वैताल अत्यन्त व्यथित हो रहा था। किन्तु विक्रम का उत्तर सुनकर वह शान्त हो गया।
विक्रम ने मधुर स्वरों से योगी को कहा- 'महात्मन्! मैं प्रदक्षिणा की विधि नहीं जानता। कृपा कर आप मुझे प्रदक्षिणा देकर बताएं। आपकी साधना के दृश्यों को देखकर मैं इतना आश्चर्यचकित बन गया हूं कि मुझे कुछ भी भान नहीं है।'
योगी को विक्रम की बात में कोई संशय दिखाई नहीं दिया। उसने कहा'राजन् ! देखो, मैं इस स्थान से तीन प्रदक्षिणा देता हूं, तुम्हें भी इसी प्रकार से करना है। यह कहकर योगी ने प्रदक्षिणा प्रारम्भ की। एक प्रदक्षिणा पूरी हुई, दूसरी पूरी हुई और जैसे ही तीसरी प्रदक्षिणा पूरी होने वाली थी कि विक्रम ने योगी को दोनों हाथों से गेंद की तरह ऊपर उठाया और यज्ञकुण्ड में फेंक दिया। उस समय यज्ञकुण्ड से जो ज्वालाएं निकलीं, वे आकाश को छू रही थीं। योगी की चीख से वातावरण कांप उठा और कुछ ही क्षणों में अग्नि शांत हो गई। विक्रम ने स्थिर दृष्टि से यज्ञकुण्ड की ओर देखा। उसे स्वर्णमयी मानव प्रतिमा चमकती हुई वहां दीख पड़ी और उसी समय विक्रम के कानों से गंभीर ध्वनि टकराई- 'हे वीर पुरुष! मैं इस स्वर्णपुरुष का अधिष्ठायक देव गांगेय हूं। हे साहसिक पुरुष! मैं तुम्हें इस साहस के लिए धन्यवाद देता हूं। इस स्वर्णपुरुष को तुम अपने राजभवन में ले जाओ और इसकी सुरक्षा करो। दिन में तुम इस स्वर्णपुरुष के जितने अंग-प्रत्यंग काटोगे, रात्रि में वे पूरे वैसे ही निर्मित हो जाएंगे। तुम्हें एक बात का ही विशेष ध्यान रखना होगा कि रात्रि में इस स्वर्णपुरुष का कोई भी अंग न काटा जाए। हे वीर विक्रम! इस स्वर्णपुरुष से तुम्हें अपार स्वर्ण की प्राप्ति होगी। तुम इस धन का उपयोग जनकल्याण के लिए करना । तुम्हारी कीर्ति चारों ओर फैल जाएगी।' इतना कहकर देव अदृश्य हो गया। और तब वैताल प्रकट हुआ।
वैताल बोला- 'महाराज! मैं आपको किन शब्दों में धन्यवाददूं? आपका साहस देखकर मेरा हृदय बांसों उछल रहा है। अब आप राजभवन की ओर प्रस्थान करें। मैं इस स्वर्णपुरुष को लेकर राजभवन में पहुंच रहा हूं।'
विक्रम अपने मित्र वैताल से बोले-'मित्र! आज जो कुछ हुआ है, वह तेरे ही पराक्रम से हुआ है। तुम-जैसे मित्र जिसको मिले हों, उसे किसी प्रकार का दु:ख हो ही नहीं सकता। मित्र! मैं तुम्हारा आभारी हूं।'
१८६ वीर विक्रमादित्य