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________________ भूल मत जाना । उसे स्मृति में बनाए रखना। योगी जब आपको यज्ञकुण्ड में प्रदक्षिणा देने के लिए कहे, तब आपको प्रदक्षिणा नहीं देनी है और योगी से ही प्रदक्षिणा सीखने के बहाने उससे प्रदक्षिणा दिलवानी है। जब योगी तीसरी प्रदक्षिणा पूरी करे, उसी समय नि:संकोच और अभय होकर योगी को उठाकर यज्ञकुण्ड में डाल देना है; अन्यथा आपकी मृत्यु निश्चित है। मैं यहीं उपस्थित रहूंगा, किन्तु योगी के मंत्र-प्रभाव के कारण मैं कुछ भी नहीं कर पाऊंगा।' विक्रम ने एक हाथ ऊंचा कर वैताल को संकेत दे दिया कि उसे अंतिम बात याद है । विक्रम शव को लेकर योगी के पास पहुंचे। योगी आकुल-व्याकुल हो रहा था। शव को लाने में इतना विलम्ब क्यों हुआ, यह प्रश्न उसे शल्य की भांति चुभ रहा था। मध्यरात्रि हो गई थी। योगी अपने आसन से उठ सकने की स्थिति में नहीं था । विक्रम ने योगी के समक्ष शव को रखा और अपने वर्तुल में जा खड़े हो गए। योगी बोला- 'राजन् ! इतना विलम्ब ?' विक्रम ने कहा- 'महात्मन् ! यह शव बार-बार उड़कर वृक्ष पर जा लटकता था। पचीस बार प्रयत्न करने के पश्चात् इस शव को यहां ला सका हूं।' 'कोई बात नहीं है । अब तीसरे प्रहर के अंत में हमारा कार्य पूरा हो जाएगा। तुम सावधान रहना ।' योगी बोला । योगी ने शव पर एक घड़ा पानी डाला। फिर उस पर कुछ सुगन्धित द्रव्य डाले और मंत्रोच्चारपूर्वक शव पर दर्भ का एक आसन बिछाया। तत्पश्चात् योगी खड़ा हुआ, दोनों हाथ ऊपर उठाकर गुह्य भाषा में मंत्रोच्चार करने लगा। उसका स्वर इतना प्रचण्ड था कि सुनने वाले की छाती फट जाए। फिर वह शव पर वीरासन की मुद्रा में बैठ गया । वन- प्रदेश का सारा वातावरण हिल उठा । योगी के मुंह से जो मंत्र-शब्द निकल रहे थे, वे अत्यन्त भयंकर और रौद्र थे। एक घटिका बीत गई। अपूर्व धैर्यशाली विक्रम भी मंत्रोच्चार सुनकर कांप उठा । अब उपद्रव प्रारम्भ हुए। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भयंकर गजराज, वराह और सिंह चारों ओर से आ रहे हैं। भूत और पिशाच विकराल रूप धारण कर नाच रहे हैं, किलकारियां कर रहे हैं। विक्रम सावचेत थे। उनके हाथ का कृपाण अंधेरे में भी चमक रहा था और योगी की रक्षा कर रहा था । योगी की अंतिम साधना सम्पन्न हुई। जैसे ही योगी शव से नीचे उतरा, सारी भूतलीला अदृश्य हो गई और योगी ने उल्लास भरे स्वरों में विक्रम से कहा वीर विक्रमादित्य १८५ -
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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