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योगी यज्ञकुण्ड के समक्ष एक चौकी पर बैठ गया और विक्रम को पास में बने वर्तुल में खड़ा कर दिया।
फिर योगी ने उसे एक मंत्रसिद्ध कृपाण देते हुए कहा- 'राजन् ! यह मंत्रसिद्ध कृपाण है। इसके प्रभाव से कोई भी दुष्ट आत्मा तुम्हारे पास नहीं आ सकेगी। तुम निश्चिंत खड़े रहना ।'
विक्रम कृपाण को हाथ में ले धैर्यपूर्वक खड़े हो गए।
योगी ने मंत्रोच्चारण के साथ विविध सामग्रियों से हवन प्रारम्भ किया। एक ओर रखे हुए ईंधन के ढेर से ईंधन डालने लगा। अर्ध प्रहर रात्रि बीतने के पश्चात् योगी ने विक्रम की ओर देखकर कहा - 'राजन् ! अब मैं मंत्र - स्मरण में बैठता हूं। तुम जाओ और निर्दिष्ट वटवृक्ष पर लटकते हुए शव को ले आओ।'
तत्काल विक्रम मंत्रसिद्ध कृपाण हाथ में लेकर उस वटवृक्ष की ओर चले। मित्र असावधान न रह जाए अथवा योगी की क्रिया में तन्मय होकर सब कुछ भूल न जाए, यह सोचकर वैताल वहां कभी का आ गया था। वह अदृश्य रहकर सब कुछ देख रहा था। वह भी विक्रम के पीछे-पीछे गया। उसने देखा, एक शाखा पर मानव शव लटक रहा है। विक्रम ने अपने इष्टदेव पार्श्वनाथ का स्मरण किया और ‘ॐ ह्रीं नम:' का जाप कर वृक्ष पर चढ़े और सावधानीपूर्वक शव को कंधों पर लादकर वृक्ष से नीचे उतरे। वह एक-दो कदम चले होंगे कि कंधों पर पड़ा शव खिलखिलाकर हंस पड़ा। यह देखकर विक्रम को आश्चर्य हुआ, किन्तु वे किंचित् भी भयभीत नहीं हुए और यज्ञकुंड की ओर अग्रसर हुए। निर्जीव शव बोल उठा-‘राजन् ! मेरी एक बात सुनो, फिर तुम मुझे ले जाना ।'
विक्रम खड़े रह गए । वे कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थे, क्योंकि उन्हें मौन रहना था। कंधे पर पड़े शव ने एक छोटा-सा वृत्तान्त प्रारम्भ किया और उसका अन्त एक प्रश्न के साथ हुआ और विक्रम ने न चाहते हुए भी हां भर ली। तत्काल शव कंधों से ऊपर उठा और वृक्ष की शाखा पर जाकर लटक गया।
आश्चर्य के साथ विक्रम ने दूसरी बार शव को शाखा से उतारा और उसने फिर प्रश्नभरी कहानी प्रारम्भ की। प्रश्न ऐसे उपस्थित होते कि मौन तोड़ने की संभावना-सी लगती। पर, विक्रम सावचेत थे। शव ने इस प्रकार पचीस वृत्तान्त सुनाए । पचीसवीं बात सुनकर भी विक्रम मौन रहे और आगे बढ़ने लगे ।
उस समय अग्निवैताल विक्रम के समक्ष प्रकट होकर बोला- 'मित्र ! मुझे आपके प्राणों का भय लग रहा था, इसलिए मैंने स्वयं मृतदेह में प्रवेश कर इतना विलम्ब किया। राजन्! यह योगी अत्यन्त दुष्ट है और नीच प्रकृति का है। और आप अपने वचन का भंग करने वाले नहीं हैं, इसलिए आप मेरी अंतिम बात को १८४ वीर विक्रमादित्य