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________________ ३६. वैताल ने सावचेत किया अपनी प्रजा के प्राणों की रक्षा के लिए अपने जीवन की बाजी लगाने वाले वीर विक्रम की कीर्ति चारों दिशाओं में चंपक के फूल की तरह महक उठी। ___मनुष्य जब कीर्ति की पांखों से उड़ने लगता है, तब उसके कर्त्तव्य की सीमा बढ़ जाती है, दायित्व बढ़ जाता है और लोगों के हृदय में उसके प्रति आत्मीयभाव जागृत होता है। वीर विक्रम केवल मालवदेश में ही नहीं, समग्र राष्ट्र में प्रसिद्ध हो चुके थे। जब प्रसिद्धि होती है, तब अनेक श्रेष्ठी, कलाकार उसके पास आतेजाते हैं। __ तीन महीने बाद कश्मीर प्रदेश के एक छोटे से गांव के एक यंत्रशिल्पी ने वीर विक्रम की बात सुनी। उसके मन में एक भावना उभरी और अपनी वर्षों की साधना की निष्पत्ति वीर विक्रम के चरणों में समर्पित करने की इच्छा हुई। इस यंत्रशिल्पी ने एक बेजोड़ वस्तु का निर्माण किया था। उसने काष्ठ का एक सुन्दर सिंहासन तैयार किया था। वह काष्ठ ऐसा था, जो न कभी सड़-गल सकता था और न अग्नि में जल सकता था। उस सिंहासन पर भांति-भांति के चित्र उत्कीर्ण थे। उस सिंहासन को देखकर कोई भी व्यक्ति चौंक पड़ता और अवाक् बन जाता। उस सिंहासन में बत्तीस पुतलियां थीं। इनकी विशेषता यह थी कि वे सभी पुतलियां नाचती थीं, बोलती थीं। ये पुतलियां यंत्र से नियंत्रित थीं और यंत्र में निश्चित किये हुए वाक्यों का उच्चारण करती थीं। ऐसे देव-दुर्लभ सिंहासन के निर्माण में यंत्रशिल्पी ने बारह वर्ष लगाए थे। उस सिंहासन को तैयार किए अभी एक वर्ष ही पूरा हुआ था, किन्तु उस महान् सिंहासन को किसे दिया जाए, यह प्रश्न यंत्रशिल्पी को सता रहा था; क्योंकि जीवन में फिर वैसे अद्भुत सिंहासन का निर्माण करना असंभव था। उस एक सिंहासन के निर्माण में शिल्पी ने अपना पूरा श्रम और धन व्यय कर डाला था। फलत: पूरा परिवार दरिद्र बन गया था। शिल्पी के तीन पुत्र और एक पुत्री थी। वे सदा कहते-'आप इस सिंहासन को बेच डालें। इससे कुछ धन मिलेगा। उससे हमारा दारिद्र्य भी मिटेगा और हम अन्यान्य व्यवसाय भी कर सकेंगे।' शिल्पी यह सब समझता था। किन्तु पैसों के लिए अपने जीवन की अमूल्य निष्पत्ति को ज्यों-त्यों या जहां-तहां गंवा देना नहीं चाहता था। जब उसके कानों से वीर विक्रम की यशोगाथा के शब्द टकराए, तब उसने अवंती जाने का विचार किया। उसने यह बात अपनी पत्नी से कही। वह बोली-'कहां अवंती और कहां हमारा यह छोटा गांव! वहां तक पहुंचने में छह मास तो लग ही जाएंगे!' १७६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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